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कचनार
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इसकी कली का काढ़ा प्रचुर आर्तवस्त्राव, श्लेष्मधराकला द्वारा रक्र ुति, कास, रक्कार्श और रक्तमूत्रता रोग में सेवनीय है । ( Materia Medica of India-R. N. Khory. Part. ii. p 193. )
वैट — इसके फूल को पीसकर चीनी मिलाकर भक्षण करने से कोष्ठ परिष्कार होता है। इसकी छाल कसेली वल्य और चर्म-विकार में हितकर है। सूखी कली रक्तातिसार और अर्श में उपकारी है । डिमक के मत से इसकी पत्ती का काढ़ा मलेरिया ज्वरजन्य शिरःपीड़ा को शमन करनेवाली है ।
श्रजीर्ण और श्राध्मान रोग में इसकी जड़ का काढ़ा सेवन कराया जाता है । व्रणों को परिपाक क्रिया के अभिवर्द्धनार्थ इसकी छाल, फूल और जड़ को तण्डुलोदक में पीसकर व्रणों पर प्रलेप करते हैं ।
उ० चं० दत्त - यह गण्डमाला, चर्मरोगों और त में उपकारी है।
डीमक - गण्डमाला में सोंठ के साथ इसकी छाल का प्रांतरिक प्रयोग होता है ।
नाकर्णी तथा नगेन्द्रनाथ सेन - इसकी जड़ का काढ़ा वसा-नाशक है। इसलिये यह स्थूल मनुष्यों के लिये अतीव गुणकारी है ।
बम्बई में इसकी पत्ती में तमाखू भर कर पीने की बीड़ी बनाते हैं । इसके रस के पुट देने से सुवर्ण भस्म होता है ।
कचनार का गोंद अर्श और प्रवाहिका के लिये अतीव गुणकारी है ।
कचनार की छाल और खीरे का छिलका इनका काढ़ा कर गण्डूष करने से जिह्वा का फटना दूर हो जाता है।
यदि नेत्र में लालिमा हो, तो कचनार की ताजी पत्ती पीस कर टिकिया बना उस पर कुछ दिन बाँधने से लाभ होता है ।
कचनार की छाल जला कर कोयला कर पीसकर चूर्ण बना मंजन करे। इससे हिलते दाँत हृद हो जाते हैं और उनसे खून आना सदा के लिये बन्द होजाता है ।
कचनार
पीला कचनार
I
पर्याय - सं० - गिरिज, महापुष्ध, महाथमल पत्रक, पीतपुर (ध० नि० रा० नि० ), कांचन, पीतकांचनं । ० - पीला कचनार, कनियार, कांडन, कोलि यार, कुइल्लार, कोइलारी. खैरवाल, सोना । बं०देवकांचन, कोइराल | ले० - बौहीनिया पप्युरिया ( Bauhinia Purpurea, Linn, Roxb.)) । मद० - पेयाडे, मण्डरेहू ता । ते०पेछोड़े, बोडउट चे । कना० - सरूल, सुराल, काँचीवाल | मरा० - रक्त चन्दन, झमट्टी, रक्त कांचन, देवकांचन । गोंडा० - को दबाड़ी | संथाल ०सिंग्याड़ | लेप० - काचिक | काल:-बुजू । पं०कोइराल नैपा० - रब्बयराला । शिम्बीवर्ग
(N. O. Leguminosae.)
उत्पत्ति स्थान - रवलिया और हिमालय पर्वत की तराई से लंका पर्यन्त ।
प्रयोगांश – वल्कल, मूल और पुष्प । गुण-धर्म तथा प्रयोग - आयुर्वेद मतानुसार'पीतस्तु कांचनो' ग्राही दीपनो ब्रणरोपण: । तुवरो मूत्रकृच्छ्रस्य कफवाय्वोश्च नाशनः ॥
( वृहनिघण्टु रत्नाकर; वै० निघ० ) पीला कचनार-ग्राही, कसेला, दीपन तथा प्रणरोपण है और यह वात एवं कफ और मूत्रकृच्छ रोग को नष्ट करनेवाला है ।
नव्यमत
इसकी छाल वा जड़ तथा फूल को तण्डुलादक में पीसकर फोड़े-फुन्सियों के परिपाकार्थ उन पर प्रलेप करते हैं । - टी० एल० मुकर्जी इसकी संग्राही छाल प्रक्षालनीय घोल है ।
- उ० चं०. दत्त । श्रतिसार में इसकी छाल का धारक प्रभाव होता है । बेटेन इसकी जड़ श्राध्मान-हर है, फूल मृदु-रेचन (Laxative ) है ।
वैट |
पीतकांचन भेद
पीले कचनार के उपर्युक्र भेद के सिवा इसका एक भेद और है जो मालाबार आदि स्थानों में
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