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________________ कपास २०६५ कपास की ढ़ेंढ़ पर्या० – कर्पास फलं - सं० । कपास के ढेढ़, कपास की ढोंद, बोंड - हिं० । कपास के पिंडे-द० । Young or tender Cotton fruit or capsules-श्रं । परुति- पिजि - ता० । पत्ति-पेंडे - ते ० । गुणधर्म कपास के कच्चे फल — दें और कोमल पल्लव स्नेहन ( Demulcent ), मूत्रल और संकोचक है। इसकी मात्रा मुट्ठी भर है। बिनौले के अन्तर्गत कथित पेय के सदृश ही इससे भी एक प्रकार का पेय प्रस्तुत कर उपयोग किया जाता है । ( मे० मे० मै० - मो० श० पृ० ५२ ) यह मूत्रवर्द्धक, वात. रक्तविकार, कर्णनाद, कर्णान्तर्गत वय, पूतिकर्ण, प्रतिसारादि नाशक है । इसकी ढेंद्र ( Carpel ) संकोचक है । ( खोरी ) आमयिक प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार सुश्रुत - कर्णनाव में कार्पासी फल –— क त्वक् चूर्ण और मधु संयुक्त कपास के फल ( डल्वा के मत से अरण्यकार्पास के फल ) का रस कान में डालने से कत्राव प्रशमित होता है । यथासर्जत्वक् चूर्ण संयुक्तः कार्पासी फलजो रसः । या जितो मधुना वापि कस्रावे प्रशस्यते ।। ( उ० २.१ श्र० ) नब्यमत मोहीदीन शरीफ़ - प्रामातिसार और पूयमेह के किसी-किसी रोगी पर इसकी कच्ची ढ़ और कोमल पल्लव का उत्तम प्रभाव होते देखा. गया है । (मे० मे० मै० पृ० ५२ खोरी- - कपास की कच्ची ढेढ़ के भीतर (उचित मात्रा में ) अहिफेन और जायफल भरकर इसका ( निधूम श्रग्नि में ) पुट पाक विधानानुसार पाक करके चूर्ण करले और मात्रानुसार श्रामातिसार रोग में व्यवहार करें। ( मे० मे० इं० भ० २, पृ० ६६ ) इसके फूल और फल (ढेद) पकाकर पीने से रजः प्रवर्तन होता और गर्भपात होता है । ( ख० अ० ) कपास व्रण की सड़ान को रोकने के लिये फलों को कूट पीस एवं पुल्टिस बना लेप करें। कर्णान्तर्गत व्रण एवं कर्णनाद पर फलों को कूट पीसकर तिल तेल अथवा सरसों के तेल में सिद्ध कर तेल को अच्छी तरह डालकर शीशी में भर रखें । इसकी ४-५ बूँद रोज दोबार कान में छोड़ना चाहिये । नादकर्णी - श्रामातिसार निवारणार्थ इसका कच्चा फल दिया जाता है । इं० मे० मे० ४०४ पृ० । रुई वा कपा प० - कार्पास तूलक, पिचुतुल, पिचुतूज़, पिचु तूल, तूला, कार्पास, कर्पास, पिचुतूल । -सं० | रुई, कपास - हिं०, द० । रुई, फूटा, कर्पा, कपास - बं० | गासिपियम् Gossy pium -ले० | काटन Cotton, काटन वूल Cotton wool-श्रं० । कोटून Cotton - फ्रां० । बमवोल्ली Bamwolle - जर० । कुन क्रुतु न, क्रुफ़ स ० । पुंबः, पश्म पुम्बः, पंबः - फ्रा० । रूई - उ० । परुत्ति - ता० । पत्ति, प्रत्ति - ते ० । परुत्ति - मल० । हत्ति-कना० । कापूस - मरा० । रु, रू - गु० । कपु-सिंगा० । गूँ, गों, वा बर० । संज्ञा -निर्णायिनी टिप्पणी - किसी किसो बंगला श्रोर संस्कृत कोषों में 'कर्पास' वा 'कार्पास' और 'तुल' वा 'तुला' पर्याय रूप से व्यवहार किये गये हैं। पर प्रथमोक्त संज्ञाद्वय का उपयोग साधारण कपास की रूई के लिये और शेष दोनों संज्ञाओं का सेमल की रुई के अर्थ में प्रयोग करना चाहिये | मुसलमान चिकित्सकों ने 'कुन' धोर 'क्रु'स' नाम से इसका उल्लेख किया है। इनमें से क्रुस संस्कृत कर्पास से ही अरबीकृत शब्द है । रासायनिक संघटन - कपास वा रुई किंचित् रूपांतर प्राप्त काष्ठ तंतु ही है और कज्जल, उदजन तथा श्रोषजन इसके मुख्य उपादान हैं। इनकी ठीक श्रानुपातिक मात्रा अभी निश्चित नहीं हुई है । पर अपने सभी आवश्यक रासायनिक गुणों में यह साधारण काष्ठ-तन्तुओं के समान होती है ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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