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________________ कमीला २१८२ ules) का औषधार्थ व्यवहार होना सिद्ध | होता है। मात्रा-१ तोला तक । ३० से ५० ग्रेन तक चूर्ण रूप में। औषधि निमोण-त्रिफलाद्य घृत । (बं० से. सं०) चूर्ण, लेपादि। गुण धर्म तथा प्रयोगआयुर्वेदीय मतानुसारकम्पिल्लको विरेची स्यात्कटूष्णो व्रणनाशनः । गुल्मोदर विवन्धाध्म श्लेष्मकृमि विनाशनः ।। ग्रन्थान्तरेपितव्रणाध्मान विवन्ध निघ्नः । श्लेष्मोदराति कृमिगुल्मवैरी॥ शूलामशोथ (मूलामशोथ ) व्रणगुल्महारी।। कम्पिल्लको रेच्य गदापहारी ॥ ध० नि० ३ व०) . अर्थात्-कबीला-कम्पिल्लक कश्रा, दस्तावर गरम और कफनाशक है तथा यह व्रण, गुल्म, मलावष्टम्भ-अफारा, प्राध्मान और कृमि का नाश करता है मतान्तर से यह पित्त और कफ नाशक एवं दस्तावर है तथा व्रण, श्राध्मानअफारा, मलावरोध, उदर रोग, गुल्म- कृमि-रोग शूल, आँव और सूजन के रोगों को नष्ट करता है। कम्पिल्लको विरेचीस्यात् कटूष्णोतणनाशनः । कफ कासातिहारी च जन्तु कृमिहरो लघुः ॥ (रा० नि० १३ व०) अर्थात्-कमीला-हलका, चरपरा, गरम, कफ नाशक और दस्तावर है तथा यह व्रण, कास; जंतु और कृमि का नाश करता है। काम्पिल्लः कफपित्ताम्र कृमिगुल्मोदर व्रणान् । हन्ति रेची कटूष्णश्च मेहाऽऽनाहविषाश्मनुत् ॥ (भा० पू० ख०मि. १०६) अर्थात्-कबीला-रन-पित्त, कृमि, गुल्म, उदर रोग, और व्रण (घाव ) को दूर करता है। तथा यह रेचक, दस्तावर, कटु रसयुक्र और उष्ण वीर्य है। एवं प्रमेह पानाह, विष तथा पथरी को | नष्ट करनेवाला है। कमीला कम्पिल्लकः सरश्चाग्निदीपकः कटुकः स्मृतः। " व्रणस्य रोपणश्चोष्णो लघुर्भेदी कफापहाः। व्रण गुल्मोदराध्मान कास पित्तप्रमेहहा। आनाहं च विषं चैव मूत्राश्मरिरुजापहा ।। कृमि च रक्तदोषं च नाशयदिति कीर्तितः। तच्छाकं शीतलं तिक्तं वातलं ग्राहि दीपनम् ॥ (वृहन्निघण्टु रत्नाकर) अर्थात्-कबीला-सारक, अग्निदीपक, चरपरा व्रण को भरनेवाला, गरम, हलका, दस्तावर, कफ नाशक तथा व्रण, गुल्म. उदर रोग, प्राध्मान, खाँसी, पित्तप्रमेह, पानाह विष, मूत्राश्मरी कृमि, और रक्तविकार का नाश करता है। इसके पत्तों का शाक ठण्डा, कडुवा, वातकारक, ग्राही और दीपन है वैद्यक में कबीले का व्यवहार चरक-गुल्म में कम्पिल्लफ-गुल्म रोगीको विरे चनार्थ कबीले को मधु के साथ प्राजोड़ित कर सेवन करायें। यथालिह्यात् कपिल्लकम्वापिविरेकार्थ मधुद्रवम् । (चि०१०) व्रणरोपणार्थ कम्पिल्लक-कबीले के साथ पकाया हुआ तैल •ष्ठ व्रणरोपक है। यथा"तैलं कम्पिल्लकेन वा,प्रधानं व्रणरोपणम् " (चि० १३० भावप्रकाश-कृमि में कम्पिल्लक-एक तोला कबीला गुड़ के साथ सेवन करने से उदरस्थ कृमि अवश्य नष्ट होते हैं । यथा कम्पिल्ल चूर्ण कर्षाद्धं गुड़ेन सह भाक्षतम् । पातयेत्तु कृमीन् सर्बानुदरस्थान संशयः ॥" (कृमि०चिः) वक्तव्यचरक के कृमिघ्न-वर्ग में कम्पिल्लक का पाठ नहीं आया है। चक्रदत्त में कृमि-रोग में कमीले का व्यवहार हुआ है। यूनाना मतानुसारप्रकृति-द्वितीय वा तृतीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष । राज़ी और मसीह ने शीतल और रूक्ष लिखा है।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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