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________________ २०३६ ac. निर्माण-क्रम-इलाजुल अमराज में उल्लिखित है कि कह का छिलका छोलकर गूदा और बीज दोनों को कूटकर रस निकालें । पुनः जितना यह रस हो । उसका चतुर्थांश तिल तैल मिलाकर तैलावशेष रहने तक मंदाग्नि से पकायें और शीतल होने पर उतार कर छान लेवें और बोतल में भर रक्खें। अथवा रोगन बादाम को भाँति मीठे कह के | बीजों की गिरी से तेल तैयार करें। (इसे कोल्हू में पेलकर भी तेल निकाला जाता है) यह अधिक लतीफ है। कभी इस तरह भी तेल तैयार करते हैं कद्द, का छिलका पृथक् करके सबको कुचलकर बकरी के गुर्दे की चरबी के साथ क्वथित करें और फिर शीतल करें। इसके बाद ऊपर-ऊपर से चरबी का उतार लेवें । गुण में यह भी पहलेवाले की अपेक्षा अधिक बलशाली है। प्रकृति-द्वितीय कक्षा में शीतल और प्रथम कक्षा में तर (सर्द तर) है। स्वरूप-पीताभ श्वेत । स्वाद-किंचिन् मधुर पर हीकदार । हानिकर्त्ता-अवगुण रहित है, पर भाई ( मरतूब) आमाशय को हानिप्रद है। दर्पघ्न-आवश्यकतानुसार मीठे बादाम का तेल । प्रतिनिधि–काहू के बीजों का तेल, रोगन बनफसा वा रोगन नीलोफर (मतांतर से कुष्मांड बीज तैल) मात्रा-६ मा० ६ मा० । प्रधान कर्म-मस्तिष्क और शरीर को तरी पहुँचाता तथा अनिद्रा को दूर करता है। गुण, कर्म, प्रयोग--यह शरीर में स्फूर्तिलाता और मस्तिष्क की रूक्षता दूर कर उसे तरावट वा स्निग्धता प्रदान करता है। यह शरीर नाक के नथुनों और कानों की रूक्षता को दूर करता, मस्तिष्क को शनिप्रदान करता, नींद लाता और शरीर को परिवृहित वा स्थूल करता है तथा शरीर, अनिद्रा' मालीखोलिया, पुट्ठों की ऐंठन, कर्णशूल, कान की गरम सूजन, उष्ण एवं रूक्ष कास, राजयक्ष्मा, तपेदिक, और रूक्ष प्राक्षेपतशनुज इन को लाभकारी है। खाने, नाक में सुड़कने, स्थान स्थान विशेष में टपकाने और अभ्यंग करने आदि किसी प्रकार से इसका उपयोग करने से उपकार होता है । प्रायः कठोरता को दूर कर उसे मृदुता प्रदान करता, गरम सूजन को उतारता और वाजीकरण है । वैद्यों के कथनानुसार कह के बीजों का तेल लगाने से शिरःशूल नाश होता है । ख० अ० बुस्तानुल मुफरिदात में यह अधिक लिखा है यह गरम तापों और मरोड़ के लिये अतिशय गुण कारी है। दम्मुल अखवैन के साथ सिर एवं शरीरस्थ क्षतों को लाभ पहुंचाता है । किसी-किसी प्रकृतिवाले के लिये वाजीकरण है। विशेषतया उन लोगों के लिये जिनमें उष्मा और रूक्षता अधिक हो, यह अतीव गुणकारी हैं। नव्यमत श्रार० एन० खोरी-बहुशः अवलेह और मोदकादि में मिष्टअलावू का गूदा व्यवहृत होता है। मिष्ट अलाबू का बीज पोषक और मूत्रकारक होता है एवं कुष्मांडादि बीज पंचक का यह एक उपादान है। मेटीरिया मेडिका आफ इंडिया-२ य खं० पृ. ३१२ । के. एम. नादकर्णी- इसकी पत्तियाँ और फल खाद्योपयोगी हैं । पत्तियां रेचक हैं । आरोपित कह के फल का गूदा सफेद, मधुर, खाद्य, शीतल मूत्रकारक और पित्तघ्न है । वीजजात तैल शीतल होता है । बीज पोषक और मूत्रकारक होता है। इसके बीजों से एक प्रकार का स्वच्छ गाढ़ा तेल प्राप्त होता है जो शिरः स्निग्ध कर एवं शिरःशूल निवारण रूप से व्यवहार में आता है। इसका श्राभ्यन्तर प्रयोग भी होता है। कभी-कभी प्रारोपित कद्द, का गूदा विरेचन औषधों के उपादान स्वरूप अनेक अवलेह एवं मोदकादि में भी पड़ता है । यह कास में गुणकारी है और कतिपय विषों का अगद है । पाददाह में तलुओं पर और प्रलाप में वालमुडित सिर पर इसके गूदे की पुल्टिस रखी जाती है । इससे तलुओं की जलन दूर होती है और शिर ठंडा होकर प्रलापादि दोष निवृत्त होते हैं । इलाजुल गुर्वा में लिखा है कि काहू के
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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