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________________ २०३८ कद्द ( मुस्तक ), पुदीना और गरम जवारिश ये दर्पघ्न श्रौषध सेवन करना चाहिये । यथाशक्य बिना दर्पन श्रोषध के इसका सेवन उचित नहीं और विशेषकर कच्चा तो कदापि नहीं खाना चाहिये । क्योंकि यह श्रांतों को अतिशय हानिप्रद है और विशेषत: कोलून (वृहदन्त्र विशेष ) नाम्नी श्राँत के लिये तो यह बहुत ही हानिप्रद है । अम्ल पदार्थों के संयोग से उन श्राँत के लिये इसका वह अवगुण और भी बढ़ जाता है । कद्द ू में तेल डालना वा कालीमिर्च, राई, लहसुन, जीरा तथा और अन्य उष्ण पदार्थ मिलाना और लवण सम्मिलित करना, शीतल प्रकृति वालों के लिये उत्तम है । उष्ण प्रकृति एवं पित्त प्रकृतिवालों के लिये इसमें कच्चा श्रंगू, अनार के दानों का रस और सिरका मिलाना चाहिये । वैद्य कहते हैं कि कद्दू स्निग्ध, मधुर, गुरुपाकी बीर्यबर्द्धक, बाजीकरण, शीतल एवं बादी है । इसके गूदे से अधिक पेशाब आता है । यह कफ और पित्त दोष, खाँसी तथा कई अन्य व्याधियों को नष्ट करता है । इसका प्रलेप करने से पित्तज सूजन उतरती है । प्रलाप करनेवाले रोगी के शिर के बाल मुड़वाकर उस पर कह का गूदा बाँध देना चाहिये । कद्द ू के पत्ते सारक हैं। इसके पत्तों का काढ़ा पीने से काला रोग नष्ट होता है । कद्द को जलाकर उसकी राख श्रांख में लगाने से नेत्ररोग नाश होते हैं । पित्तज शिरोशूल में शिर पर कद्दू का गूदा लगाना चाहिये । कद्दू का रस तेल में मिलाकर लगाने से कई रोग नष्ठ होते हैं । - ख़० श्र० कद्दू का बीज ( अलाबू बाज ) पर्या० - लाबू बीज, तुम्बी बीज सं० । कद्दू का बीज, लौकी का बीज, लौश्रा का बीज, - हिं० । तुख्म कद्दू, तुख्म कदू ए दराज़ -फ़ा० । वज्र ल्क, हन्बुल् क - ० । टिप्पणी- जब केवल कदू का बीज' लिखा हो, तब उससे 'मीठा कदू' वा 'मीठा लोचा' अभि प्रेत होता है । प्रकृति - यह द्वितीय कक्षा में शीतल श्रोर प्रथम कक्षा में तर है । कद्द ू को हानिकर्त्ता - शीतल प्रकृति और वस्ति को । दर्पन - सौंफ ( और शहद प्रभृति ) तुम करफ़्स । स्वरूप - ऊपर से मैला वा भूरा और गिरी सफेद तथा चिकनो । स्वाद - मधुर, स्निग्ध, सुस्वादु और किंचित् हीकदार | प्रतिनिधि - खीरा, ककड़ी ( ख़ियारैन ) के बीज । और तरबूज के बीज और ( कतीरा ) मात्रा - १०॥ मा० से २ तो० ७ ॥ मा० तक ( मतांतर से ६ या ६ मा० ) गुण, कर्म, प्रयोग — इसकी गिरी शरीर को परिवृंहित करती, चलायमान दोपों को शाँत व स्थिर करती और मूत्र का प्रवत्तन करती है । यह सीने को कर्कशता - खुशूनत ( खुरखुराने ) को तथा मुख द्वारा रक्तस्राव होने को और गरमी की खांसी को गुणकारी है । यह प्यास बुझाती तथा पेशाब की चिनक एवं वस्ति-शोथ को लाभ पहुँचाती है । यह गरमी के ताप और अनिद्रा को मिटाती है। हृदय तथा मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करती है । चाक कफ (बलगम शोर ) को प्रकृतिस्थ करती ( मं० मु० ) और उसमें जुज (परिपकता ) पैदा करती है । यह उष्ण वा पित्तज शिरोशूल को लाभ पहुँचाती, मस्तिष्क रूक्षता का निवारण करती, मूर्च्छा दूर करती और faura aौषधोंकी बिधानता का नाश करती है । वैद्यों के कथनानुसार ये बीज शीतल होते हैं और शिशूल निवारणार्थ श्रनेक प्रकार से व्यवहार किये जाते हैं। इनकी मींगों को पीसकर लेप करने से जिह्वा और होठों के चीरे मिटते हैं । - ख० श्र० । मुफ़रिदात नासिरी और बुस्तानुल मुफ़रिदात में यह अधिक लिखा है कि फेफड़े से खून श्राना, वस्ति और श्रांत्र-क्षत, वृक्क - कार्श्य, प्रकृति जात ऊष्मा, इन व्याधियों में यह लाभकारी है । कद्द ू का तेल पर्याय-तुम्बी-बीज तैल-सं० । कद्द का तेल - हिं० । रोग़न मज तुम कद्द - फ्रा० | दुहन हृब्बुल् नर्थ-श्रृ० ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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