________________
कन्दूरी
२०७५
कन्यसा
व०५।
कर मर्दन करें। इसके प्रलेप से मुख, गुदा और | कंधि-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] ग्रीवा गरदन हारा० । कटि भाग में उत्पन्न पिटिका नष्ट होती है । बासव संज्ञा पुं० [सं० पु.] समुद्र । सागर । रा० २२ प्र० पृ. ३६१)
कंधिका-संज्ञा स्त्री॰ [सं० सी० ] बन मूंग । मुग्दकन्दूरो-संज्ञा स्त्री० दे० "कंदूरी"।
पर्णी । मुगवन । कन्देक्षु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] काशभेद । एक प्रकार कंधु, कंधुक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) झड़का काँस का पौधा । वै० निघ० ।
बेरी । भूमिवदर । (२) जंगली बेर । श्रारण्य कन्दोट-संज्ञा पु० [सं० पु०, क्ली० ] (१) सफेद |
वदर । वै० निघ। बन कुल-बं। कमल । शुक्कोत्पल । (२) कुमुद । कुई । कोका- कन्न-संज्ञा पुं० [सं० की.] मूर्छा। बेहोशी। बेली। बघोला । (३) नीलकमल । नीलोत्पल ।। श० मा०। शकर।
कन्ना-संज्ञा पु[सं० कण ] चावल का कन। कन्दोत-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.](1) कुई।कुमुद । -[पं०] कञ्चरा । कनूरक ।
कोकाबेली । त्रिका० । (२) सफेद कमल श्वेत | कनाड़ी-[ ते०] सावर,ग। पद्म । श० र०।
कन्नी-संज्ञा पुं॰ [सं० स्कंध ] (पेड़ोंका नया कल्ला । कंदोत्थ-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] नीला कमल ।
कोपल । [ मल• ] भंगरा । नीलोत्पल । रा०नि० व० १०।
कनूपल्ली-[ ता०] खिरनी । राजादन । कंदोद्भवा-संज्ञा पुं० [सं० स्त्री०] (१) कन्द
क़मअ-[१०] चूहा। गुडूची । कंदगिलोय । रा० नि० व० ३। (२)
कंकखर-[?] बर्दी की जड़ । लु० क० । पटेरा । पटेरा
- की जड़। पटेरा से चटाइयाँ बुनते हैं। ख००। क्षुद्र पाषाणभेदी। छोटा पथरचटा । रा०नि०
कंफज़:-[अ०] मादा साही। कंदौषध-संज्ञा पुं० [सं० की. ] प्रादी। अदरक ।
कन्बेगु चेट्ट -[ ते०] विकंकत ।
कन्बेर-[वम्ब० ] श्वेत करवीर । सफेद कनेर । ० निघः । द्रव्य र० । नि०शि० । कंध-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) मेघ । बादल ।
कन्मः [अ०] (१) मैल । (२) ख़राब अख
रोट । शब्दर । (२) अभ्रक नामको धातु । अबरख ।
कन्यका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) घीकुवार। . के० । (३) कंधा । दे० "कंध" । (४) एक
गृहकन्या । रा०नि० व० ५। (२) कन्या । प्रकार का मोथा । मुस्तक भेद।
वेटी । (३) बड़ी इलायची । रा० नि०, नि० कंधर-संज्ञा पु० [सं० पु.](१) मरसा । मारिष
शि०। (४) दृष्ठि । नजर । (५) कुमारी । शाक । (२) मेघ । बादल | संज्ञा पुं० [सं०
लड़की । स्मृति शास्त्र में दस बर्ष की अवस्था की क्री० ] ऐसे दही से तैयार किया हुआ तक जिससे कुमारी को "कन्यका" कहते हैं। मलाई अलग न की गई हो। "ससारस्य दध्नः अष्टबर्षा भवेद्गौरी नववर्षा तु रोहिणी। तक्र कन्धरमिष्यते ।" कु० टी० श्रीकण्ठः । (२) दशमे कन्यका प्रोक्ता अत ऊध्वं रजस्वला ॥ सस्नेह दधि । स्नेहयुक्त दही । सि. यो० षट्कन्धर अर्थ-पाठ की गौरी, नौ की रोहिणी, दश तैल।
की कन्यका और इससे ज्यादा की कन्या रजस्वला कंधर-बात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] असी प्रकार के |
कहलाती है। वात रोगों में से एक । इसमें दाह, सूजन, तन्द्रा, कन्यका चल-संज्ञा पुं० [सं० की.] लड़की को निद्रा, ज्वर, तृष्णा, मतिभ्रम और गात्र में सूखा
धोखा देने का काम । प्रलोभन । फुसलावा। पन होता है।
कन्यकाजात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अविवाहिता कंधरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) एक प्रकार स्त्री के गर्भ से उत्पन्न । कन्या समुद्भव । - का मान । वै० निव० । (२) ग्रीवा । गरदन। कन्यसा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कनिष्टांग ली। रा०नि०व०१८। ।
सबसे छोटी उंगली। कानी उंगली।