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________________ कपूर २११६ कपूर चमेली वा तिल के तेल मिलाकर प्रयुक्त करता हूं।" इसके सूधने से उष्ण प्रकृतिवालों की प्रकृति बलवती होती है । यह जौहर रूह को बहुत शक्ति प्रदान करता है। परन्तु इसके लिए शीतल प्रकृति वालों को इसे अंबर और कस्तूरी के साथ देना चाहिए । रूक्षता निवारणार्थ इसे रोगन बनाशा या चमेली के तेल के साथ देना चाहिये। दाँतों में कीड़ा लगने पर इसको दाँतों पर मल वायें और इसका गण्डूष धारण कराएँ। यह उष्ण बिषों का अगद है। यदि बिच्छू किसी को डङ्क मार दे, तो ३॥ मा० खाने से बिलकुल आराम होजाता है। यदि फोड़ा फुसी अत्यन्त विषैला एवं प्रसरणशील हो, तो इसके उपयोग से आराम होता है। यह क्षत की वेदना निवारण करता है। यदि किसी अंग से रक्क न रुक सके, तो इसको | पीसकर बुरकते हैं । इससे वह रुक जाता है। इससे चांदी के आभूषण और वर्तन सुरक्षित रहते हैं। इससे उनकी असली चमक-दमक स्थिर रहती है। नकसीर का रन बन्द करने के लिए यह परमोपयोगी है । इसे पानी या गुलाब में पीसकर अवपीडित करें. या धनिये के हरे पत्तों के पानी में या बारतंग के पत्तों के पानी में पीसकर मस्तक और शिर पर मालिश करें । अथवा १-१ जौ भर कपूर सिरके में या हरे धनियों के पत्तों के पानी में या तुलसी, बनतुलसी अथवा मरुवेके पत्तोंके पानी में घोट कर नाक में सुड़क ले । कपूर की सुगंध से वायु शुद्ध होती है और अनेक प्रकार के कीट भागते ओर मृतप्राय हो जाते हैं। महामारी फैलने पर बहुत से लोग इसकी टिकिया और डली अपने सिर, हाथ तथा जेब में रखते हैं। कपूर और नरकचूर प्रत्येक दो तोला पीसकर तीन तोला गुड़ में मिलाकर एक फाहा पर परिविस्तृत करें और उसके केन्द्र में छिद्र रखें। यह फाहा नहरुवा पर चिपका दें। इससे समस्त नहरुवा दो-तीन दिन में उक्त फाहा के छिद्र से होकर निकल जायेंगे। कहते हैं यदि स्त्री इसे अपनी गुडेंद्रिय में लगाथे, तो पुरुष उस पर क़ादिर न हो सके । इब्न असवद ने लिखा है कि मेरे एक मित्र ने ४॥ माशा कपूर एक दिन खाया, उससे उसकी पुरुषार्थ शक्ति का जोर जाता रहा । दूसरे दिन भी उतना ही खाया, उसकी कामेच्छा बिल्कुल जाती रही । तीसरे दिन भी उतना ही खाया. जिससे उसका आमाशय विकृत हो गया, यहाँ तक कि श्राहार पाचन नहीं होता था। मुहीत श्राज़म में लिखा है कि हिंदू कपूर को वृष्य और वाजीकरण-मुक़व्वी बाह बतलाते हैं। इसीलिये इसको प्रायः हलुओं में सम्मिलित कर खाते हैं । खज़ाइनुल अदविया के लेखक लिखते हैं कि मैंने कतिपय वैद्यों की लिखी किताबों में इसके सम्बन्ध में देखा है कि क्रीवता उत्पन्न करता है। अस्तु, अनुभूत चिकित्सा सागर में लिखा है ५ रत्ती से १० रत्ती तक कपूर खाने से नपुस्त्व उत्पन्न होता है। हिंदू इसको हलुश्रा वा.खीर में केलव सुगंधि के अर्थ डालते हैं। गुरु पाक आहारों में इसकी धूनी हलुओं को केवल कम खाने और अल्प व्यय होने के लिये देते हैं। ___ यह कुचले के सत से हुई विषाक्तता को निवारण करता है। इसका प्रथम प्रभाव फैलनेवाला या स्फूर्तिदायक होता है और दूसरा रक्कमें मिलकर सम्पूर्ण अंगों के नियत मात्रा से बढ़े हुये कार्य को स्वाभाविक दशापरले प्राताहै यहपीड़ा एवं उद्वेष्टन कोमिटाता है। इसकी अधिक मात्रा मूर्छाकारक तीक्ष्ण बिष जैसी है । यह ज्वर, शोथ; श्वासहृद्रोग, कूकरखाँसो, हृदय के फूलजाने से उसका अधिक स्पन्दन, मूत्र एवं वीर्य संबन्धी अंगों के रोग वेदना सहित ऋतुस्राव होना, स्त्री कामोन्माद सुत (? शुक्र) प्रमेह, नाड़ी व्रण, जरायु, प्रदाह एवं उसमें से नाना भाँति का द्रव स्रावित होना, मूत्र धारण शनि की निर्वलता, स्त्रियों के आसेब का रोग,गठिया,शरीरकी सड़न और लघु-संधिशूल प्रभृति रोगों में बहुत गुणकारी है। -ख. प्र. पपोटों, पर इसका लेप करने से सूजन उत्तरती है। २॥ रत्ती कपूर और श्राधी रत्ती अफीम. इन दोनों की गोली बनाकर सोते समय खाने से
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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