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________________ करपी २२१२ करवीरायतल करवी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (3) हिंगुपत्री । कनेर की जड़, शिफा (जमालगोटा ), निशोथ, भा० पू० १ भ० गु० व०। (२) अजवायन । कड़वी तरोई । केले का क्षार और केले का पानी (३) राई । राजिका। सु० सू. ४६ प० । इनमें तेल सिद्धकर लगाने से बाल गिर जाते हैं । (४) एक प्रसिद्ध फूल । शा० सं० । (३) सफेद कनेर के पत्ते, और करवीक-संज्ञा पुं॰ [सं. क्री.] करवी । दे. उसकी जड़ की छाल, इन्द्रजौ, विडंग, कूठ, पाक "करवी"। की जड़ सरसों, सहिजन की छाल और कुटकी । करवीभुजा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.]) श्रादकी । इन सब चीजों को समान मात्रा में मिलाकर तेल अरहर का से चौथाई लें। कल्क बनाकर चौगूने गोमूत्र के साथ करवीरभुजा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.]) पेड़ । रा० सिद्ध किया हुश्शा तैल कुष्ठ और खुजली को नष्ट नि० व० १६ । करता है। च० चि० ७ अ० । करवीर-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) कनेर का | करवीर भुजा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ) अरहर । पेड़ । रा०नि०व०१० । सु० सू० ३६ अ०। शिरोविरेचन । (२) अर्जुन का पेड़ । (३) श्राढ़की । रहर । रा०नि० व० १६ । भुजाढ़की । प० मु० (४) हिंगुपत्री । (५) करवीर भूण-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] अरहर । एक प्रकार की सोमलता । सु० चि० २६ अ० । श्रादकी। दे० "सोम"। (६) तलवार । खड्ग । कृपाण । | करवीरम्-[ता०] ) करवारक-संज्ञा पु० [सं० पु. (१) सफेद | करवीरमु-[ते.] | कनर । कनेर का पेड़ । (२) कनेर की जड़ । हे • च०। करवीरु-[ कना०] ( Anisochilus carno(३) अर्जुन वृक्ष । रा०नि० व०६ । (४) sus, Wall.) पंजीरी का पात। सीता की खड्ग । तलवार । पंजीरी । अजवान का पत्ता । करवीरकन्द-संज्ञा पु० [सं० पु.] तैल कन्द। करवीरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मैनसिल । मनःकरवीरकन्द संज्ञ-संज्ञा पुं० [सं० पुनी० ] तैल | शिला। कन्द । रा०नि०व०७।। करवीरादि तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० की. ] कनेर; हल्दी करवीरका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मैनसिल । वै० दन्ती, कलियारी, सेंधा नमक और चित्रक तुल्य भाग, इन्हें विजौरा के रस और पाक के दूध में करवीरिणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का तेल सिद्ध करें। पुष्पवृक्ष । जिसे कोंकण देश में “ककर खिरनी" गुण-इसके उपयोग से भगन्दर नष्ट होता कहते हैं । यह ग्रीष्म ऋतु में होती है । इसमें लाल है योग त. भगन्दर चि० । भैष. २०। (२) फूल लगते हैं । करवीरणी कड़वी गरम और चरपरी होती है तथा यह कफ, वात, विष, प्राध्मान लाल कनेर के फूल, चमेली, प्रासन और मल्लिका वात, छर्दि, ऊर्ध्व श्वास, तथा कृमि-इनको (मालती) इन्हें तेल में पकाएँ। दूर करती है। (वै० निघ०) गुण-इसके उपयोग से नासार्श नष्ट होता करवीर तैल-संज्ञा पुं॰ [सं. क्री] उक नाम का है। (भैष० र० नासा० रो० चि०) एक योग-(१) सफेद कनेर की जड़ और | करवीरादि लेप-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक लेपौमोठा विष समान भाग लेकर गोमूत्र में पीसकर - षधि जिसमें कनेर पड़ता है। योग यह हैकल्क बनाएँ। पुनः इसे चौगुने तिल तैल में | सफ़ेद कनेर की जड़. कुड़ा की जड़, करंज की जड़ विधिवत पकाएँ। की छाल, दारुहल्दी और चमेली के पत्तों को गुण-इसके उपयोग से चर्मदल, सिध्म वारीक पीसकर लेप करने से कुष्ठ का नाश होता कुष्ठ, पामा, कृमि रोग और किटिभकुष्ट का है। वृ० नि० र• त्वग् दो. चि०। नाश होता है । भै २० कुष्ठ चि० । (२) करवीराध तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.]
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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