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________________ कठियागेहूँ १९६७ ग्रहणी, प्रामाशय और रक्तपित्त का नाश होता है। | कडउ-क.] कदम । कदंब । (भैष० २० अरोचक चि०) पूर्वोक्त द्रव्य-समूह | क (का) ड -[कना०] माषपर्णी । मषवन । के साथ २ तो. लौंग और २ तो. धनियाँ भी | कड़क-संज्ञा पु० [सं० क्ली०] सामुद्रलवण । समुद्रनोन मिला देने से यह अम्लपित्त के लिये भी उपयोगी समुन्दरी नमक । कड़कच लवण । २० मा०। हो जाता है। यदि पूर्वांक सकल द्रव्यों के साथ संस्कृत पय्योय-सामुद्र, त्रिकूट,अक्षीव, वशिर, २ तो० बेल का चूर्ण भी योजित कर दें, तो यह सामुद्रज, सागरज और उदधि सम्भव | भावप्रकाश रक्रातिसारमें भी लाभकारी सिद्ध हो । हि०वि०को। के मत से कड़क मधुर विपाक, ईषत् तिक्र एवं कठिया गेहूँ-संज्ञा पुं॰ [हिं०कठिया xगेहूं] एक प्रकार मधुर रस युक्त, गुरु, न अतिशय शीतल और न का गेहूं जिसका छिलका लाल और मोटा होता | अतिशय उष्ण, अग्नि दीपक, भेदक, क्षारयुक्र, है। इसे "ललिया" भी कहते हैं । इसके आटे में | अविदाही, कफकारक, वायुनाराक, तीक्ष्ण पार चोकर बहुत निकलता है। अरुत होता है। कठिल्ल, कठिल्लक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) करे ___ संज्ञा स्त्री० हिं० कड़कड़] (१) कसक । पीड़ा ला। कारवेल्लक । प० मु। भा० पू० २ भ०। जो ठहर ठहर कर हो । (२) एक प्रकार का (२) जंगलो करेला । कर्कट । कँकरोल | प०मु.। मूत्ररोग जिसमें रुक रुककर और जलन के साथ च0 चि० ३ ०। "कर्कटोऽरण्यसम्भूतः कठिल्लः पेशाब होता है। शठघातकः ।" वै0 निघ०। (३) पुनर्नवा । रा०नि०व० ५। भैष० मध्यम नारायण तैल । संज्ञा पुं० [ते.] हड़ का पेड़। कड़कच-संज्ञा पु. [सं० क्री०] सामुद्र लवण । (४) रकपुनर्नवा | गढ़हपूर्ना । भा० पू० २ भ०। समुन्दरी नमक । यह लवण सफेद और काला (२) तुलसी का पौधा । त्रिका० । दो प्रकार का होता है। बंगाल के वीरभूम जिले में कठिल्लका, कठिल्लिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) सफेद के सिवा काला नहीं मिलता। काले की करेले को बेल । कारवेल्ल वृक्ष । (२) तुलसी । अपेक्षा सफेद कुछ कड़ा होता है । कड़कच सेंध(३) रकपुनर्नवा । गदहपूर्ना । ज० द. १२ अ०। व लवण की भाँति विशुद्ध रहता है। इसीसे कठीर-संज्ञा पुं॰ [सं० कंठीरव ] सिंह। शेर, -डिं। स्मृतिशास्त्र में विधवाओं के भोजन के लिये कलुबर-संज्ञा पुं०, दे० "कठूमर"। कठूमर-संज्ञा पुं० [हिं० काठxऊमर ] जंगली गूलर सैंधव और सामुद्र दोनों प्रकार के लवण का जिसके फल बहुत छोटे छोटे और फीके होते हैं। विधान है। कठगूलर | वि० दे० "गूलर" । कड़कण्डू- ता०] मिश्री । सितोपल । कठे-[बर०] निएप (मदरास)। (Samadera कड़कशा-संज्ञा पुं० [सं० १ ) काला कुड़ा। Indica, Gaertn ) कडकाइ-[ता० हड़ का पेड़ । हरीतकी। कठ्ठल-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] कटहल । कड़काटक शिंगी-[ ता. ] काकड़ासिंगी। कठोदर-संज्ञा पु० [हिं० काठxउदर ] पेट का एक कड़ कुंदुरुकम्-[ मल० । काला डामर । रोग जिसमें पेट बढ़ता है। और बहुत कड़ा कड़को-[ राजपु• ] कड़ाका । उपवास . लंघन । रहता है। कड़काय-[ ते० ] हड़। कठोर, कठोल-वि० [सं० त्रि०] [ संज्ञा कठोरता] | कड़कर-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] तुष। भूसी । कठिन, सख़्त । कड़ा । अ० टो० । वै० निघ० । कड़-संज्ञा पुं॰ [देश०] (1) कुसुम । बरे ।(२) कुसुम कडङ्ग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार की मदिरा का बीज । बरें। सुरा विशेष । उणा०।। वि० [मल०] काला । कृष्ण । कडङ्गवी- लेप० ] कोरेडून कोलेबुकिएनम् । कड भरिशिना-[ कना० ] वनहरिद्रा । जंगली | कडङ्गर-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] [वि० कड़करीय] हल्दी। __वुष । नुष । वुष । तुड़ो ।हे0 च० |
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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