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________________ असेल २३६१ कसेकादिसपि . दर्पन-चीनी, शुद्ध मधु और इसका | के लिये गुणकारी है । इसका पानी हरारत मिटाता छिलका। तथा हृत्स्पंदन (खफकान ) और सीना एवं प्रधान कर्म-हृद्य है और नफकान एवं सोज़स को लाभ पहुंचाता है। अतिसार निवारक है। __ वैद्यों के मत से कसेरू मधुर, शीतल, किंचित् गुण, कर्म, प्रयोग-कसेरू शिशिर शीतल कषाय, वृंहण एवं स्थौल्यकारक और गुरुपाकी मोर गुरु है तथा पित्त एवं रविकार और दाह हैं। यह स्क्रपित्त (पैत्तिक शोणित, मतांतर से का निवारण करता है । यह उदर में कब्ज पैदा रक प्रवृत्ति ), उष्णता, नेत्ररोग, अतिसार और करता और वृष्य एवं कफ तथा वातकारक और अरुचि का मिटानेवाला है । वातकारक, कफवर्धक प्यास बुझानेवाला है ।विशेषकर जब इसे छिलका और स्तन्यजनक है । इसके खाने से जहर उतरता सहित खाते हैं। किंतु जब इसे चाबकर इसका है । कसेरू का चूर्ण शहद में मिलाकर चटाने से के बंद होती है । कसेरू खाने से अतिसार नाश पानी उतार घोंट जाते हैं और सीठी फेंक देते हैं, सब यह शैत्यकारक होता है । और इसमें गुरुत्व होता है । औषधि भक्षणजनित मुख की विरसता कसेरू के खाने से दूर होती है। कसेरू का चूर्ण (सुकूल) का प्रभाव होता है। इसे पीसकर और और मिश्री का चूर्ण एकत्र फाँकने से शुफ कास शर्वत गुलाब तथा मिश्री में हल करके और साफ़ पाराम होता है। --ब्र०अ०। करके खाते हैं और इसे शीतल, दूषित वायु के डीमक-कसेरू संग्राही है और अतिसार तथा विष को दूर करनेवाला तथा पूयमेह नाशक मानते वमन के निवारणार्थ इसका उपयोग होता है। हैं। विशेषकर जब इसे छिलका सहित पीसते हैं । किन्तु बिना छिलका के यह लघु ( लतीफ़ ) और (फा० इ०३ भ. पृ० ५५५) नयेंद्रनाथ सेन--यह प्रश्मरी, त्वग्दाह और रुचिकारक हो जाता है। (तालीफ़ शरीफ्री) नेत्ररोगों में उपकारी है । इसका फूल पित्त और कसेरू हृदय को शनि प्रदान करता और वन- कामलाहर है। कान (हृदय को धड़कन ) को दूर करता है । नादकर्णी-चिचोड़ की जड़ मृदु रेचक है। उन विसूचिका में जब अत्यंत कै और दस्त पाते कसेरू सारक और कोष्ठमृदुकर स्वीकार किया हों, तब इसका सेवन लाभकारी होता है। किंतु जाता है । वृत्तगुण्ड वा गोल कसेरू संकोचकी विसूचिका को प्रारम्भावस्था में इसका उपयोग (Astrin gent) है। दूध से बनाई हुई वर्य है। यह वातज, पित्तज एवं रक्रातिसार में इसकी काँजी, अतिसार और वमन में पोषण का भी उपकारी होता है और उसे बंद करता है । यह उत्तम साधन है । यह ( Bland) और शोभ प्यास बुझाता है, उदर की गर्मी एवं प्रदाह को निवारक भी है। औषधियों का स्वाद छिपाने एवं मिटाता तथा सर्वांग दाह और ताऊन (प्लेग) रोग निवारण के लिये इसकी जड़ चावी जाती है। के लिये गुणकारी है। पित्तज और रकज ज्वरों में | (इ. मे० मे० पृ० ७८०) इसका पेय और प्रलेप लाभकारी होता है । यह | चोपरा के अनुसार यह वमन और रक़ातिसार नाही (काबिज ) एवं शुक्रजनक है तथा रक्तविकार | में उपयोगी है। उरोदाह और पैत्तिक व्याधियों को नष्ट करता है। कप्सेरुकादिसर्पि-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक आयुर्वेदीय यह उष्ण विषों का अगद है। यह हर प्रकार के घृतौषधि, कसेरू, शैवाल, आदी, प्रपौण्डरीक विषों का निवारण करता है, पुनः चाहे वह किसी | (अंडरिया), मुलहठी, विस, (कमलनाल ), विषैली वस्तु के भक्षण से हुआ हो या किसो विष. ग्रन्थि (पिपलामूल ) इनके कल्क से दूध के साथ धर जंतु के दंश से । यह सूजाक को लाभ पहुँ- यथा विधि घृत पाक करें। चाता है । (ना० मु, म. मु०, बु० मु०) गुण-तथा उपयोग-इसमें शहद मिलाकर जखीरहे अकबर शाहीके मतसे यह ग्राही (काविज)| सेवन करने से पित्तजन्य हृद्रोग नष्ट होता है। दीपाकी, कफबईक और उष्ण प्रकृति के लोगों (यो. २०४० रो०) ७६ फा.
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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