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कञ्च-संज्ञा पुं० [सं०] कच। शीशा ।
और मोचरस प्रत्येक का चूर्ण २-२ तो. मिलायें । [म.] गाँजा ।
ठंडा होने पर इसमें एक पाव शहद मिलादें । बस कञ्चट, काबाड़-संज्ञा पु० [सं० पु०, क्री०] (1) "कञ्चटावलेह" तैयार है । इसे दोष, बल एवं
गजपिपली । गजपीपर । बड़ी पोपर ।वै० निघः । काल विकार मात्रा के अनुसार उपयोग (२) एक प्रकार का प्रसिद्ध जलज शाक । जल करने से यह अवलेह, अतिसार, ग्रहणी, अम्लपित्त चौलाई । जल तरदुलीय । २० मा० । च० द०। उदररोग, कोष्ठज विकार, शूल और अरुचि का सि. यो० कञ्चटादि। भा० म. १ भ० अ० सा. निवारण करता है । च० द० । सा० को। चि०। जजचौलाई वा कञ्चर के संकृत पर्या०- कञ्च-सहा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का कबट । जलभूः, लालो, लागलो (श०), शारदी, तोय- ____ छोटे पत्तों का कञ्चट शाक। पिप्पली, शकुलाइनी (२०), जल-त डुलायं । | कञ्चड़-सं ।। पु० [सं० पु.] कञ्चट का एक भेद ।
गुण-यह धारक, कफकारक, शीतल, रमपित्त पर्या-कन्वरः, काचः, चक्रमई, अम्बूपः नाशक और हलका है। राज० । यह वातनाशक | (श)।
और कडुश्रा है। भा० पू० १ भ० शा० व०। कश्चन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का कचवि० दे० "चौलाई"। (३) महाराष्ट्री।मराठी। ___ नार । रककांचन । वै० निघ० । मरेठी । के. दे. नि०। नि. शि.।
कञ्चार-संज्ञा:पु० [सं० पु.] सूरज । सूर्य । कञ्चटपत्रक-संज्ञा पुं॰ [सं० को०] जल चौलाई को | काश्चक-संज्ञा पुं॰ [सं० श्री.] काजिक । काँजी।
पत्ती । कञ्चटच्छद । रस० र० ग्रहणी कपाट रस। अ० टी० भ० । कञ्चट पल्लव-संज्ञा पुं० [सं० पु.] जलचौलाई। कश्चिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१)वेणुशाखा । ... कञ्चट | सि० यो० ग्रह० चि० जम्ब्यादि।
कनखो! कनई । बाँस को डाल । श० च०। कञ्चटादि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चक्रदत्त में एक पय्या-कुचिका, पृष् गु: (०) । (२) .. काढ़ा जिसका व्यवहार अतिसार में होता है। छोटा फोड़ा । क्षुद्र स्फोट । कंजियारा. नि..
इसमें पड़नेवाली जलचौलाई श्रादि ओषधियों की २०। (३)सोंचल नमक । पत्ती ग्रहण करनी चाहिये । जैसे, जलचौलाई की कच्ची-संा स्त्री॰ [सं० स्त्री.](१) काला जीरा । पत्ती, अनार की पत्ती, जामुन की पत्ती, सिंघाड़े (२) वंशाखा । बाँस को कनई । की पत्ती, सुगंधवाला, नागरमोथा और सोंठ। कञ्च, कञ्चक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] [स्त्री० की] इनको समभाग लेकर यथाविधि काढ़ा प्रस्तुत कर | (१) केचुन । सर्प को काँचली । सर्पस्वक् । हे. सेवन करने से गंगा के समान वेगवान् अतिसार च०। (२) ऊँट । (३) स्तर । (Coat) अ. का भी नाश होता है। च० द० अतिसार-चि०। शा०। () चोलक । जामा | चपकन । अचकन ।
नोट-इसमें उपयुक औषधियाँ २-२ तो. (५) एक औषध । मे० कत्रिकं । (६) वस्त्र ले आध सेर जल में पादावशेष जल रहने तक | मात्र । (७) चोली | अंगिया। सीने पर पहना पकाने का विधान है।
जानेवाला कपड़ा। कञ्चटावलेह-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक अवलेहौ-
संस्कृत पर्या-चोलः, कञ्चलिका, कुर्बासक, पध जिसका उपयोग ग्रहणी रोग में होता है। अङ्गिका।
योग तथा निमोण-क्रम-कञ्चट और ताल- कनुकशाक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का मूली प्रत्येक १-१ सेर को १६ सेर जल में यहाँ शाक । एक प्रकार की सब्जी का पौधा । वैद्यक. तक पकायें, कि ४ सेर जल शेष रह जाय । फिर निघंटु में इसे वातकारक, ग्राही, सुधाजनक और इसे छानकर एक सेर चीनी मिला पुनः पाक करें।। कफपित्तनाशक लिखा है। जब पकते पकते चौथाई रह जाय, तब उसमें कञ्चका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (1) असगंध । वराहक्रान्ता, धातकोपुष्प, पाठा, बेलगिरी, पोपल, अश्वगंधा । (२) कञ्च कशाक । वै० निव० । भाँग की पत्ती, अतीस, जवाखार, सोंचल, रसांजन कञ्चकालु-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) सर्प ।