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________________ कचरी १६६ कचरी इसके बाद उसे तेल में भूनकर नमक डालकर कोष्ठावयवों-बह शा को शकि प्रदान करता है। खाते हैं। पकते समय इसे गोश्त में डालने से यह अर्श, अर्धाङ्ग, पक्षाघात और अर्दित आदि यह मांस को बहुत शीघ्र गला देती है । आमाशय वायुरोग तथा कफ के रोगों को आराम करता है। को शनि देनेवाले दीपन-पाचन चूर्गों में इसे यह वाद्य रतूबतों को लाभकारी है। समूचे फल प्रायः मिलाते हैं । यह पाचन-शक्ति को अत्यन्त के समग्र गुणधर्म एक समान हैं। यहाँतक कि तीव्र एवं प्रशस्त कर देती है। पुनः वे उसी कचरी के बीज की पृथक् गणना नहीं होती। पुस्तक के फूटके प्रकरण में लिखते हैं कि यह दस्त- ख. श्रः। म्या का हिंदी नाम है और यह गुणधर्म में कचरी कोष्ठावयवों को शक्ति प्रदान करती है कच्चे खरबूजे के समीपतर है। लेखक के मत से और नाड़ियों-पुट्ठों में जो काठिन्य प्राजाता है, क्योंकि इसमें सुगन्धि होती है। अस्तु; यह उसे दूर करती है । यह अर्धाङ्ग और अर्दित रोग मस्तिष्क तथा हृदय को शक्किप्रद है । यह प्राशु- को और प्रायः कफजन्य व्याधियों तथा अर्श को मलावष्टंभकर होती है और दुर्गन्धित ज्वर( हुम्मा लाभ पहुँचाती है । यह वातनाशक है और वाह्य अफिनः ) पैदा करती है । इसे बारीक कतरकर रतूबतों का अभिशोषण करती है । यह मलबद्धताफाल्दे की तरह शर्बत गुलाब वा चीनी के साथ कारिणी और बाजिकारिणी भी है । म. मु०। खाते हैं। यह दिल और दिमाग़ की शक्ति बु० मु०। बढ़ाती है । ता० श०। इसका धूपन अर्श में उपकारी है । यह श्राहार इसकी महक मस्तिष्क को शनिप्रद तथा अव. पाचनकर्ता तथा वातजन्य उदरशूलहर है । (पकते रोधोद्घाटनी है । पकी वा कच्ची कचरी मूत्रल है। हए ) गोश्त में डालने से यह उसे शीघ्र गला इसके कुछ दिन सेवन करने से पथरी टूट-फूटकर देती है । बु० मु०। निकल जाती है और यह गोश्त को गलाने- पच्छिम में सोंठ और पानी में मिलाकर इसकी वाली है। ना० मु०। चटनी बनाते हैं। कचरी-वाजिकर और मलावरोधकारिणी है लोग प्रायः इसे सुगंध के लिए हाथ में रखते और अपनी ऊष्मा एवं तारल्य व मृदुत के कारण हैं और बहुत कम चखते हैं । हिं० वि · को० । दोषों को संचालित कर स्थानान्तरित करती वा (२) कचरी वा कच्चे पेहटे के सुखाये हुये उनके उत्सर्ग की जगह खींच लाती है अर्थात् ज़ाजिब टुकड़े। (३) सूखी कचरी की तरकारी । (४) है। इसका छिलका दीर्घपाकी है। यह भोजन में काटकर सुखाए हुए फल फूल श्रादि जो तरकारी के लिए रक्खे जाते हैं। (५) छिलकेदार दाल । रुचि उत्पन्न करती और आहार को पचाती है। यह कफ वात और काठिन्य का नाश करती है। (६)रूई का बिनौला वा खूद। इसे बीचमें से चीरकर और सुखाकर घी में भूनकर | संज्ञा स्त्री॰ [ ? ] कपूर कचरी । नमक छिड़ककर खाते हैं । यह खानेमें अत्यन्त रुचि- कचलू-संज्ञा पु० [ देश० ] एक पहाड़ी पेड़ जो जमुना कारी होती है । कचरी ताजी भी खाई जाती है। यह के पूर्व में हिमालय पर्वत पर ५००० से १००० गोश्त गलाने के लिए उसमें डाली जाती है। इससे फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। इसका वृक्ष उसमें सुगन्धि पाजाती है और वह पाचनकर्ता प्रियदर्शन होता है । इसकी पत्तियाँ शिशिर में मड़ हो जाता है। दाल प्रभृति में प्रायः पाचनार्थ जाती हैं और बसंत के पहले निकल पाती हैं। और वायु को नष्ट करने के लिए इसे डालते हैं इसकी कई जातियाँ होती हैं। भारतवर्ष में इसके इसकी धूनी अर्श के लिए असीम गुणकारी होती | चौदह भेद पाये जाते हैं। इनके पत्र में भेद है। वायुजन्य उदरशूल में इसका चूर्ण उष्ण जल | होता है। के साथ परीक्षित है। इसका बीज भी वायुनाशक | कचलोन-संज्ञा पु० [हिं० कच-काँच+लोन लवण ] है। यह भूख बढ़ाता है तथा बाजिकारक है एवं एक प्रकार का लवण जो काँच की भट्टियों में जमे
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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