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कदली
२०२.
कदली
दर्पनाशक--लवण, मधु और शुण्ठी वा (सोंठ का मुरब्बा ) तथा शर्करा । वैद्यों के मतसे उष्ण जल और काली मिर्च । प्रतिनिधि--शर्करा और कन्द-मिली।
गुण, में प्रयोग-यह अल्पाहार कलीलुल ग़िजा और प्रकृतिमार्दवकर है। सांद्रता के कारण इसका अधिक भक्षण अवरोधजनक है। शैत्योत् पादन के साथ साथ यह प्रामाशय में अधिक तरी भी उत्पन्न कर देता है । अस्तु यह गुरु एवं विष्टंभी | है। यह भक्षण करनेवाले की प्रकृति के अनुकूल पित्त एवं श्लेष्मा उत्पन्न करता है । निज मार्दव कारी गुण के कारण वक्ष और कंठगत दाह को लाभकारी है। अपनी रतूबत फज़लिया अवशिष्ट आर्द्रता के कारण शुक्र वृद्धि करता है और वृक्तक एवं वस्ति के लिये सात्म्य है । क्योंकि मूत्र प्रवर्तन करता है।-त० न०।
केला अत्याहार-कसीरुल गिज़ा, कांतिकारी (जाली ) स्थौल्यकर, चिरपाकी, हृद्य और वक्ष मार्दवकर है तथा यह शुष्क कास एवं तालु और कंठगत दाह एवं कर्कशता (खरखराहट) को लाभ पहुंचाता है। यह प्रामाशय को वेदित करता अतिसार को नष्ट करता और ( उष्ण प्रकृति वालों को) कामोद्दीपन करता है। मु. ना.
बु० मु० । ___ यह वृक्क की कृशता को दूर करता है। सिरके
और अर्क नीबू के साथ इसका प्रलेप खालित्य वा गंज, कंडू तथा खज रोग को लाभकारी है। इसकी पत्तियों का प्रलेप शोथ विलीनकर्ता है। इसका छिलका जलाकर अवचूर्णित करने से व्रण द्वारा स्रावीभूत रन रुकता, व्रण पूरण होता और घाव सूख जाता है। इसकी जड़ पिलाने से उदरज कृमि निःसरित होते हैं । इसका नोहार मुह खाना हानिकर है । इसके भक्षणोपराँत जल पान
करना भी अहितकर है। -बु० मु०। : कदलीमूल शीतल एवं शरीर शनियों और
अंगों को बलप्रद तथा कफ, पित्त एवं रक्त विकार नाशक है। सूज़ाक में इसे पानी में पीसकर पीने से उपकार होता है पर कहते हैं कि इससे कामापसाय उत्पन्न होता है। जामा इब्न बेतार के
कथनानुसार इसका पका मीठा फल प्रथम कक्षा के मध्य में उष्ण और प्रथम कक्षा के अंत में तर है। इसका कच्चा फल शीतल, तर, गुरु, प्राध्मान कारक और कफकारक है तथा पित्त, वात एवं रक्त के दोष वक्ष प्रदाह और प्राघात-प्रत्याघात जनित क्षतों का निवारण करता है । उष्ण प्रकृति वालों के काम का उद्दीपक और बृक्त की कृशता एवं वर की कर्कराता को लाभकारी है। भारत निवासी इसके कच्चे फल को गोश्त के साथ वा बिना गोश्त के पकाकर खाते हैं. यह शुक्रप्रद, कामशकिप्रद और मस्तिष्क वलप्रद है, ऐसा लेखक के अनुभव में भी पाया है । यह आमाशय को निर्बल करता तथा भारी है । इसका दर्पघ्न इलायची का दाना है । यूनानी चिकित्सा शास्त्र विद् इसका अवगुण नाशक कंद-मिश्री तथा सोंठ का मुरब्बा लिखते हैं-ता० श०।
यह अत्याहार-क़सीरुल गिजा और चिरपाकी है। पाचनोपरांत सांद्र एवं श्लेष्मीय रक उत्पन्न करता है। यह शरीर को स्थूल करता और उल्लास प्रद है तथा वक्ष में मृदुता उत्पन्न करता एवं उष्ण प्रकृति वालों को कामोद्दीपक है । यह व्रणादि को कांति प्रदान करता और वृक्क-कार्य का निवारण करता है और शुष्क कास एवं कंठस्थ कर्कशता एवं दाह को लाभ पहुंचाता एवं अतिसार वा दस्त को बंद करता है । परन्तु शेख के मत से यह मृदुसारक-मुलरियन है । इसके अत्यधिक मात्रा में सेवन करने से पेट में भारीपन उत्पन्न होता है। वैद्यों के मत से भारी नहीं है । अनुभवी लोगों का कहना है कि यदिकेला भक्षण करने से पेट में गुरुत्व एवं विष्टंभ उत्पन्न हो जाय,तो गोटी किस्म का कालादाना ३॥ माशे पीसकर शीतल जल से खा लेवें । तुरन्त उपकार होगा। उत्तम यह है कि उष्ण प्रकृतिवाला इसे खाकर थोड़ी सी सिकञ्जवीन बजूरी चाट ले और शीतल प्रकृति वाला मधु चाट ले । यह वस्तिगत दाह का निवारण करता, अधिक पेशाब लाता और निज प्रभाव
से कुत्ते के लिए बिष है। __ सिरका और नीबू के रस के साथ प्रलेप करने से खाज तथा सिरका गंज प्राराम हो जाता है।