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________________ कर्मकारिष्ट नागरमोथा प्रत्येक श्राधा श्रधा पल और नवीन नागकेसर ४ पल लेकर सबको २ द्रोण पानी में पकायें । जब चौथा भाग शेष रह जाय तब छानकर ठंडा करके उसमें मुनक्का का क्वाथ २ आढक, उत्तम खाँड़ २ तुला ( २०० पल ), नवीन शहद आधा प्रस्थ, दालचीनी, इलायची, मोंथा, तेजपात, सुगन्धवाला, खस, सुपारी और नागकेशर प्रत्येक १ - १ कर्ष का चूर्ण मिलाकर पवित्र घृत के चिकने और खाँड तथा अगर से धूपित वरतन में संधान करके १५ दिन तक रक्खा रहने दें | इसके पश्चात् निकाल कर छान लें और बोतल में बन्द करके रखें । गुण - मधुर, हृद्य, रुचिकर, ग्रहणी दोष, श्रर्श अफरा, उदर रोग, ज्वर, हृद्रोग पाण्डु, शोथ, गुल्म, विवन्ध, खाँसी, कफज रोग और बली पलित तथा खालित्य ( गंज ) नाशक है । च० चि० १४ प्र० । कनकारिष्ट-संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] एक श्ररिष्ट विशेष | खैर का क्वाथ १ द्रोण, त्रिफला, त्रिकुटा, हल्दी, निर्मली, दालचीनी, वावची, गिलोय और बायविडंग का चूर्ण १ - १ पल, तथा शहद २०० पल, और धव का फूल = पल लेकर सबको घृत से चिकने किये हुये मिट्टी के घड़े में भरकर संधान करके रखें। गुण- इसको प्रातः काल उचित मात्रा में पान करने से पुरातन कुष्ठ नष्ट होता है । इसे १ मास तक सेवन करने से सूजन, प्रमेह, खाँसी, श्वास, मस्से और भगन्दर श्रादि समस्त रोग नष्ट होकर शरीर कुन्दन के समान हो जाता है । ग० नि० ६ श्र० । कनकारी -संज्ञा स्त्री० [देश० ] गोखुरू | कनकालुका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] सोने की सुराही । सुवर्ण भृङ्गार । हला० । कनकावती वटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] शुद्ध पारा, गंधक, हरताल, सेंधानमक, कलिहारी और तुम्बी का फल प्रत्येक १ - १ पल, एवं लहसन ४ पल लेकर चूर्ण करके एक दिन तक करेले के रस में घोटकर १ - १ रत्ती की गोलियाँ बनायें । गुण- इसके उपयोग से बवासीर, वातरक्त, विशेषतः कफज बवासीर का नाश होता है । ३७ फा० શું कनकुट अनुपान - भिलावाँ, त्रिफला, दन्ती, चीता प्रत्येक का चूर्ण समान भाग और सेंधानमक का चूर्ण सबके बराबर लेकर मिट्टी के ठीकरेमें मंदाग्नि पर बहुत समय तक भूनें। यह चूर्ण १ कर्ष और उक्त वटी १ गोली खाकर ऊपर से तक्र पियें। २० २० श्रर्श० चि० । कनकासव - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] हिक्का और श्वास रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का एक श्रासव | योग— शाखा, मूल, पत्र और फल सहित कुटा हुआ धतूरा और वाँसे की जड़ की छाल ४-४ पल, मुलहठी, पीपल, कटेली, नागकेसर, सोंठ, भारंगी और तालीशपत्र प्रत्येक का चूर्ण २-२ पल । धव के फूल १ प्रस्थ, मुनक्का २० पल, पानी २ द्रोण खाँड़ १ तुला और शहद श्राधी तुला लेकर सबको एकत्र करके यथा विधि संधान करके १ मास तक रक्खा रहने दें । गुण- इसके सेवन से हर प्रकार की खाँसी, श्वास, यक्ष्मा, क्षत क्षीणता, जीर्ण ज्वर, रक्त पित्त और उरः क्षत का नाश होता है । भैष० २० हिक्का चि० । कनकाह, कनकाह्वय -संज्ञा पुं० [सं० पु ं० क्ली ] (१) सफेद धतूरा | श्वेत धुस्तूर । ( २ ) चौलाई । तण्डु लीय शाक | वै० निघ० । ( ३ ) जमालगोटे का पौधा । जयपाल वृक्ष | प० मु० । (धतूरेका तुप | धुस्तूर वृक्ष । रा०नि० ० १० । (५) नागकेसरका पेड़ । रा० नि० व० ६ । २० मा० । कनकी संज्ञा स्त्री० [सं० कणिक ] ( १ ) चावलों के टूटे हुये छोटे छोटे टुकड़े । ( २ ) छोटा कण | कनकुटकी - संज्ञा स्त्री० [ हि० कुटकी ] रेवन्दचीनी की जाति का एक प्रकार का वृक्ष, जो खसिया की पहाड़ी, पूर्वी बंगाल और लंका आदि में होता है । इसमें से एक प्रकार की राल निकलती है, जो दवा के काम आती है। 1 कनकुटी - संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+कुटी ] जंगली हुल हुल का एक भेद । इसका पौधा लगभग श्राध गज ऊँचा होता है । पत्ते कुलथी के पत्ते की तरह होते हैं और शाखान्त में एक में तीन-तीन पत्ते लगते हैं। फूल और फली ३ नालीकी तरह होती हैं। इसकी फली को 'क्रनकुटी' कहते हैं। इसके
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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