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________________ कपास .२०८३ दाह, चित्त की बेकली, परिश्रम, भ्रम और मूर्च्छा इनका नाश होता है। कपास की पत्ती- वायुनाशक मूत्रवर्द्धक और रक्त जनक है। इसके सेवन से कान का घाव, कर्णनाद और कान से पीव बहना राम होते हैं। कपास के वीज स्तनों में दूध प्रगट करते हैं एवं वृष्य, स्निग्ध कफजनक और भारी है। तद्वीजं श्लेष्मलं स्निग्धं बृष्यं । (केयदेव निघण्टु ) कपास के बीज —-- कफकारक, स्निग्ध और वृष्य हैं। योगरत्नाकर वृहनिघण्टु रत्नाकर श्रोर सुबोध वैद्यक प्रभृति श्रायुर्वेदीय ग्रंथों के अनुसार इसकी जड़ श्रीर पत्ते का रस सर्पदंश में उपयोगी माना जाता है । परन्तु काय और महस्कर के मतानुसार यह साँप और बिच्छू के बिष में निरुपयोगी है। कपास के वाह्यांतर प्रयोग कपास की पत्ती पर्या० – कार्पासीपत्र | कपास को कोंपल । 1 कपास के कोलियान - द० 1 Young shoots or leaves - श्रं० । कपास के पत्ते स्नेहन और मूत्रल हैं तथा श्रति सार, आमवात, प्रदर, सर्पदंश, मूत्रकृच्छादि को नष्ट करते हैं । आमयिक प्रयोग आयुर्वेद में— अपस्मार में कार्पास पत्र रस - एक मास तक नीबू का रस, कपास की पत्ती का रस, नीम की पत्ती का रस इनमें काली मिर्च के चूर्ण का प्रक्षेप देकर सेवन करे । यथा “एक मासावधि निम्बु रसेन कार्पास पत्र निम्बपत्र रसः समरिचः पेयः ।" ( २ ) श्वेत रक्तप्रदर में कार्पास पत्र स्वरसकपास को पत्ती के स्वरस में शर्करा मिली हुई बंगभस्म सेवन करें । यथा---- कपास समित "* * कार्पास पत्र रसे बङ्गभस्म देयम् ।” ( बस० रा० पृ० ४२० ) प्रसूता स्त्री के स्तन में पर्याप्त दुग्ध न होने पर कपास की पत्तीका स्वरस सेवन कराना चाहिये । वात रोगी की स्फीत संधियों पर कपास कीं पत्ती पीसकर तैल मिला लेप करें ।। ( Materia Medica of India-R. N. Khory Part II. page 96. ) लिये कपास के कोमल पत्तों का स्वरस श्रामातिसार की उत्कृष्ट श्रौषधि मानी जाती है। श्रामवात या वातरक्त जन्य संधिशोथ पर पत्तों को पीसकर तथा तैल में सिद्धकर बाँधते हैं । गर्भाशयिक शूल में इसकी कोमल पत्तियों के काढ़े में कटिस्नान कराने से उपकार होता है। ज्वर के पश्चात् त्वचा की रूक्षता या खुजली दूर करने के देव कपास ( अथवा साधारण कपास) के पत्तों के रस में कालीजोरी Vernonia An the Pmistica) पीसकर, शरीर पर उबटन सा लगाते हैं । ( इसके लगाने के तीन घंटा बाद स्नान करना चाहिये । ) मूत्रकृच्छ निवारणार्थ पुडुकोट में इसके पत्तों को पीसकर दूध के साथ पिलाते हैं । देवकपास के पत्ते इस कार्य में शीघ्र गुणकारी है । फा० ई० १ भ० पृ० २२५ । कपास के पत्ते का काढ़ा बल्य है और ज्वरातिसार में इसका उपयोग होता है । ( ऐट्किन्सम) श्रामातिसार में इसके कोमल पत्तों का ताज़ा स्वरस उपयोगी है। अर्श, मूत्रकृच्छ एवं अश्मरी रोग में इसे २ से ३ तोले की मात्रा में गोदुग्ध के साथ देते हैं । प्रांत्र शैथिल्य एवं अतिसार 1 में इसके कोमल पत्तों का शीतकषाय ( Infusion ) वा चाय प्रस्तुत कर व्यवहार करते हैं । गुद-व्याधि-विशेष ( Tenesmus ) होने पर गुदा के लिए वाष्प स्वेद प्रस्तुत करने में इसका उपयोग होता है। गर्भाशयिक शूल में इसके कोमल पत्तों के काढ़े में कटि स्नान करने से उपकार होता है । इसके पत्तों की पुल्टिस बाँधने से ग्रंथि या व्रण शीघ्र पकते हैं। वातरक्क़ जन्य संधि शोथ पर तेल के साथ इसका प्लाष्टर काम में भाता
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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