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कषायकृत्
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कषाया
संज्ञा पु ं० [सं० पु०, क्री० ] ( १ ) कषाय रसवाली चीज़ | कसेली वस्तु । ( २ ) छः रसों में से एक । कसैला रस । रा० नि० व० २० । पर्या०[० - तुबर, कबर, तूबर (सं) बशत्रु, बशी, हाबिस, काबिज़ - श्रु० । ( Astring ent.)
कषाय नित्य - वि० [सं० त्रि | जो निरंतर परिमाण में कषैले रस का सेवन करे। हमेशा बहुत मात्रा में कसैले रस का सेवन करनेवाला । निरंतर कषाय रस सेवी । च० ।
नोट - - यह भूमि और अग्नि गुण बहुल, शीतल, भारी, रूत, स्तम्भक, शमनकर्त्ता, ग्राही, मुख को 'शुद्ध करनेवाला तथा जिह्वास्तंभादिकारक और कटुविपाकी भी होता है। इसका विपाक वातकारक, कफपित्तनाशक, दीपन, पाचन, शोफ रोधक और शिथिलताजनक है तथा अधिक सेवन करने से रोग उत्पन्न करता है । जो मुख को पाण्डु शुद्ध करे, जीभ को स्तंभित करे, कंठ को अवरुद्ध करे तथा हृदय को कर्षित एवं पीड़ित करे उसे 'कपाय' कहते हैं । सु० सू० ४२ श्र० । यह शोषण कर्त्ता, स्तंभक, व्रणपाक की पीड़ा को दूर करता तथा कफ शोणित श्रोर पित्त का नाश करता, रूखा, शीतल और भारी है। राज० । इसके सेवन से जीभ जड़ और स्तंभित हो जाती है । ० । इस रस के अधिक सेवन करने से शूल, अफारा, हृत्पीड़ा। और श्राप-ये रोग लग जाते हैं । भा० ।
कषायकृत् - संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] लाल लोध । रक्तलोध । जटा० ।
कषायजल - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] गूलर, सिरिस और बरगद की पकाया हुआ पानी । कषायदन्त कषायदशन -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] सुश्रुत में अठारह प्रकार के विषैले चूहों में से एक | इसके काटने से नींद श्राती, हृच्छोष होता
र कृशता होती है । इसके ज़हर में सिरिस का सार, फल और छाल इनको शहद में मिलाकर चाटने से लाभ होता है । सु० कल्प० ६ श्र० । वाग्भट के अनुसार इस प्रकार के चूहों का वीथ्यं जिस अंग पर गिर जाता है, वहाँ सूजन होती, सहाँध होता और गोल चकत्ते पड़ना इत्यादि लक्षण होते हैं । वा० उ० ३८ ० | वि० दे० "चूहा” |
पाकर, पीपल, छाल डालकर
कषायपाक -संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] क्वाथ करने की विधि | काढ़ा प्रस्तुत करने की प्रणाली ।
नोट -- काढ़े में जल का परिमाण लिखा नहीं रहने पर गीली वस्तु में ठगुना श्रोर सूखी वस्तु में सोलह गुना जल मिलाकर काढ़ा करते हैं श्रोर चतुर्थांश जल शेष रहने पर उसे उतारते हैं । कषायफल - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] सुपारी । पुरंगी फल | पूग फल | वै० निघ० । कषाययात्रनाल - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार का मक्का जो कसैला होता है । तुवरयावनालधान्य । रा० नि० व० १६ । कषाययोनि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कषायाधि करण | सा० । वे पाँच हैं--मधुर कषाय; अम्लकषाय, कटुकषाय, तित्रकषाय और कषायकषाय । च० सू० ४ श्र० ।
कषायवर्ग-सं० पुं० [सं० पु० ] वैद्यक में कसैली षधियों का एक गए जिसमें के अनुसार सुश्रुत संक्षेप में त्रिफला, सलई ( शल्लकी ), जामुन, श्राम, मौलसिरी और तेंदू के फल, न्यग्रोधादि (वट ), श्रम्बष्ठादि, प्रियंगु श्रादि, लोधादि, शालसारादि, निर्मली शाक, पाषाणभेदक वनस्पति श्रोर फल, कटसरैया ( कुरवक) कचनार, जीवन्ती, चिल्ली, पालाक्य; सुनिषण्ण आदि, नीवारकादि, एवं मुद्रादि सम्मिलित हैं । सु० सू० ४२ अ० । कषायवासिक - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] सुश्रुतो क कीट विशेष | सौम्य होने से यह कीट श्लेष्म प्रकोपक है ।
कषायवृक्ष-संज्ञा पु ं० [सं० पुं० ] वह वृक्ष जिसकी छाल और फल कषैला होता है । बरगद छाँवले श्रादि का पेड़ जिसका फल और छाल कसैली होती है । च० चि० ४ श्र० । कषायस्कन्ध-संज्ञा पुं० [सं० पुं० ] एक प्रकार की
श्रास्थापन वस्ति जो प्रियंगु श्रादि कषैली वस्तुओं से तैयार की जाती है । च० चि०८ ० । |कषाया-संज्ञा स्त्री० [ सं . स्त्री० ] ( १ ) रक्त दुरालभा | लाल धमास । ( २ ) छोटा धमासा |