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________________ करह. और दक्षिण चीन में होता है। इसकी लकड़ी और छाल काम में श्राती है । ( Picrasma quassioides, Benn . ) - फा० इ० १ २३४८ भ० पृ० २८ प्र० । कश्ह - [ अ० ] कोख | तिहीगाह | कूल्हा | ख़ासिरः । कष-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) कसौटी । ( पत्थर ) कष्टिप्रस्तर । कषपट्टिका | कष्टी । पर्या० - शान, निकस (सं० ) । (२) सान। ( ३ ) परीक्षा । जाँच । कषण - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( 1 ) शलाट | दो हजार पल का मान । ( २ ) कसौटी । संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( १ ) खुजलाना | कंडूयन् । (२) कसोटी पर घिसना । कसोटी पर चढ़ाना | कसना | वि० [सं० त्रि० ] अपक्क | कच्चा | श० च० । कष पाषाण - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] पारस पत्थर | स्पर्शमणि । कषा - संज्ञा पुं० [सं० स्त्री० ] चाबुक । दे० "कशा" । कषाय - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) कषाय स्वाइवाला जिसमें कसाव हो । जिसके खाने से जीभ में एक प्रकार की ऐंठन या संकोच मालूम हो । कसैला । बौकठ | नोट- कषाय छः रसों में से एक है । कसैली. वस्तुओं के जैसे --आँवला, हड़, बहेड़ा, सुपारी आदि । वस्तुओं के उबालने से प्रायः काला रंग निकलता है । (२) सुगंधित । खुशबूदार । सुगंध । त्रिका० । ( ३ ) रंगा हुआ । रंजित । ( ४ ) गेरू के रंग का । गैरिक । ( ५ ) लाल । लोहित । संज्ञा पु ं॰ [सं॰ पु ं० ] ( १ ) कैथ का वृक्ष । ( २ ) असन का वृक्ष । महासर्ज । चै० निघ० । (३) बाइस प्रकार के मण्डली सर्पों में से एक । सु० कल्प० ४ ० । ( ४ ) सोनापाठा का पेड़ । श्योनाक वृक्ष । धरणिः । (५) धव का पेड़ । • बड़हर । रा० नि० व० ६ । (७) गोंद । वृक्ष का निर्यास । ( ८ ) चंदन आदि लेप विलेपन । ( 8 ) अंगराग । उबटन । मे० । (१०) लाल धमासा । रक्त धमासा | जवासा । कटालु । -कुनाशक । कटुरा । नि० शि० । कषाय (११) वस्तुओं को जल में कथित कर तैयार किया हुआ काथ मात्र । विधि यह है कि द्रव्य को कूटकर एक पल लेकर उसमें सोलह गुना जल डालकर औटाते है। जब चौथाई शेष रह जाता है, तब उतार कर छान लेते हैं। विधान यह है कि इसे मंदी आँच से पकाते हैं और गुनगुना पीते । भावप्रकाश प्रभृति में ऐसा ही लिखा है । यथा- 'पादशिष्टः कषायः साद् यः षोडशगुगाम्भसा । भा० । षाडशगुणाम्भसा पकः चतुर्भागावशिष्ट काथः कषाय उच्यते ।” २० मा० । परन्तु शार्ङ्गधर ( १ ० ) अनुसार अष्टमावशिष्ट रहा हुआ 'कषाय' कहलाता है । पर्या०- ० श्रुत, काथ, कषाय, निर्यूह | ( Decoction or infusion ) स्वरस, कल्क, काथादि कषाय के भेद हैं। स्वरस, कल्क, क्वाथ, शीत वा हिम और फाण्ट भेद से कषाय पाँच प्रकार का होता है। इनमें पहले पहले दूसरे दूसरे से भारी तथा दूसरे दूसरे पहले पहले से हलके होते हैं । अर्थात् स्वरस से कल्क, कल्क से काथ, काथ से शीत तथा शीत से फाट हलके होते हैं और फाण्ट से शीत, शीत से काथ, काथ से कल्क और कल्क से स्वरस भारी होते हैं । यथा - " कषायः पचविधाः स्वरस कल्क काथ हिम फाण्ट भेदेन यथोत्तरं लघवश्च भवन्ति ।" चरक के मतानुसार भी "कषायस्य कल्पनं पचविधम्--स्वरसकल्क श्रुत फाण्ट भेदेन एषा तथा पूर्व बलाधिक्यम् । च० सू० ४ अ० । सुश्रुत में कषायपाक की विधि इस प्रकार लिखी है- 'तत्र केचिदाहुरु त्वक्पत्र मूलादीनां भागस्तचतुगुण जलमावाप्य चतुर्भागावशेषं निः काण्यापहरेत् । अथवा तत्रोदक द्रोणे त्वक्पत्रमूलादीनां तुलामावाप्य चतुर्भागावशिष्टं निः काध्यापहरेत् । सु० च० ३१ प्र० ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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