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________________ कमीला २१८४ नव्य मतानुसार यह कृमिघ्न एवं विरेचक है । मात्रा - ३० से २० ग्रेन (२ से८ ग्राम ) वाह्य रूप से कबीले को दाद और तर ख़ाज श्रादि पर लगाते हैं पर इसको अधिकतर टीनी साइड (कद्दूदानाहर ) रूप से व्यवहार करते हैं। इसके उपयोग की विधि यह है इसके चूर्ण को साधारणतः लुनात्र शीरा या शर्बत में मिलाकर वर्त्त ते हैं। इससे पूर्व और श्रावश्यकता होने पर बाद को भी एक विरेचन देना चाहिए, जैसे कि अन्य कृमिघ्न श्रौषध सेवन के समय दिया जाता है । प्रयोग कमीला ( कबीला ) म्यूसिगो गान्धी सिरूयस जिजबरिस एकाफिलाई ऐसी एक मात्रा श्रौषध रात को पिलादें और श्रागामी प्रातः बेला में वा ब्लैक ड्राफ्ट का विरेचन दें । खोरी - कमीला विरेचन और कृमिघ्न है । गुड़ के साथ सेवन करने से श्रन्त्रस्थ सूत्रवत् कृमि निःसारित करता है । विरेचनार्थ कबीला सेवन करने से विवमिषा उपस्थित होती है, परन्तु वमन नहीं होता । यह पित्त का श्रधः प्रवर्तन करता एवं शूलवत् वेदना को शमन करता है। कबीले का प्रलेप दद्रु प्रभृति विविध चर्म रोगों का नाशक है । - मे० मे० इं० २य खण्ड ५५० पृ० । आर. एन० चोपरा - औषधीय क्रिया ३० प्रेन ४ ड्राम १ ड्राम ॥ श्रस सोते समय एरण्ड तैल डा० सेम्पर Semper (I910) ने कृमियों -मेकियों ( Tadpoles ) और मंडूकों पर इस औषधि की क्रिया का परीक्षण किया और उन्होंने उक्त जंतुओं पर इसका स्पष्टतया विषाक्त प्रभाव होते पाया । इसके द्वारा उत्पादित लक्षण यद्यपि अपेक्षाकृत मृदुल स्वभाव के थे, तथापि वे मेल फर्न ( Male fern) द्वारा उत्पन्न लक्षण के सर्वथा समान थे। इसका पक्षाघातकारी (Paralysing ) प्रभाव अत्यन्त व्यक्त था, कमीला यह श्रामाशय पथ को प्रदाहित करता है, श्रौर श्रौषधीय—वयष्क मात्रा में देने पर भी अत्यन्त विवमिषा उत्पन्न करता तथा श्रांत्रस्थ कृमिवत् गति की वृद्धि करता है । अस्तु, यह श्रेष्ठ तीव्र रेचन का कार्य करता है । कुत्तों पर प्रयोग करनेसे यह प्रगट होता है कि यह श्रामाशयांत्र- पथ से अति न्यून अभिशोषित होता है । आमयिक प्रयोग - गंडूपद एवं सूत्रवत् कृमियों के निवारणार्थ इस औषधि का उपयोग होता है और पथ्य वा किसी अन्य प्राथमिक तैयारी के बिना इसका साधारणतया उपयोग किया जाता है सेवन से पूर्व इसके चूर्ण को दुग्ध, दधि वा मधु मिश्रित कर लेते हैं अथवा इसे किसी सुवासित जल में हल कर लेते हैं। दो से तीन ड्राम की मात्रा में इससे विवमिषा एवं उद्व ेष्टन (Griping) होना संभव है और इससे खुलकर विरेक श्राजाते हैं जिससे पश्चात् को पुनः किसी बिरेचनौषध देने की आवश्यकता नहीं होती । यद्यपि पूर्वकालीन श्रन्वेषकों ने इसके उत्कृष्ट कृमिहर होने का दावा किया है, पर केइयस श्रौर और महेसकर (१९२३) ने रूद धान्यांकुरा कार कृमि ( Hook worms ) गण्डूपदाकार वा वल कृमि ( Round worms ) और कशाकृमि (Whip worms) उक्त तीनों प्रकार के कृमि पीड़ित बहुसंख्यक रोगियों पर इसके प्रयोग किये। परन्तु उक्त रोगियों में यह निरर्थक सिद्ध हुआ। कहते हैं कि उत्तम कबीले का चूर्ण कद्दूदाना फीताकार कृमियों पर उत्कृष्ट प्रभाव करता है । ( कद्दूदाना, स्फीताकार कृमि के चित्र और उनका उपचार परीक्षित-प्रयोग' स्तम्भ में देखें ) पथ्य एवं विरेचनादि का पूर्व प्रबन्ध करने के उपरांत सेवन कर उसका प्रभाव तीव्रतर किया जा सकता है जैसा मेल- फर्म के सेवन-काल में किया जाता है । यह मृदु श्रौषध है और शिशु एव निर्बल व्यक्तियों को जिन्हें एक्ट्र क्ट मास उपयोगी नहीं होता, इसका व्यवहार कराया जाता है । - ई० ० इं० । नादकर्णी- - यह तीव्र रेचन, कृमिघ्न, वृध्य 'श्रोर अश्मरीधन है। पूर्ण मात्रा में यह उग्र रेचन और इससे विवमिषा एवं मरोड़ होती है ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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