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कन्दर्पसुन्दर रस २०७३
कन्दवर्द्धन समान होजाना, सफेद कोढ़, लालकोढ़, विपादिका संज्ञा पुं॰ [सं० को०] (१) शिलीन्ध्र पामा. विस्फोटक, नीली, कृमि, वृद्धि, दाद, मसूरी
पुष्प । खुमी । त्रिका० । (२) कमल बीज | किटिभ, लाल चकत्ते, और प्रौदुम्बर, पद्मकुष्ठ,महा
कमलगट्टा । (३) कदली पुष्प । केले का फूल । पद्मकुष्ठ, गलगण्ड, अर्बुद, गण्डमाला. भगन्दर, और
(४) श्रादी। अदरक । रा०नि० व०६ । (५) वातज, पित्तज, कफज, तथा द्वन्द्वज और सनि
सूरन । शूरण । भा० पू० १ भ० शा० व० पातिक आदि सब प्रकार के कुष्टों का नाश (६) गण्डस्थल । (७) अंकुर । नया अंखुना, करता है। भैष ।
नवांकुर । (८) कोमल शाखा । नर्म डाल । कन्दर्प सुन्दर रस-संज्ञा पुं॰ [ सं० वी० ] शुद्ध कन्दलता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) माला पारा, हीरे की भस्म, मोती भस्म, सीसे की भस्म
कन्द । रा०नि०व०७। (२) तुद्रकार वल्ली । चाँदी भस्म, सोने की भस्म, श्वेत अभ्रक भस्म
कुडुहुञ्ची। छोटी करेली । वै० निघ० । इन्हें अरिमेद के स्वरस से खरल करें । पुनः मूगा
कन्दली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०, पु० कन्दलिन् ] की भस्म २ कर्ष, गन्धक का चूर्ण २ कर्ष मिला- !
(१) पद्मबीज । कमलगट्टा । रा० नि० व १०॥ कर असगन्ध के रस से खरल कर सवका मिश्रण सु० सू० ३६ अ० पित्तशमन । (२) एक प्रकार कर एक मृग के सींग में भर कपर मिट्टी कर संपुट
का हिरन । (३) एक प्रकार का गुल्म । मे० । में रखें। सुखाकर हल्कं आग की प्रॉच से फूक
लत्रिक। द, पुनः इस प्रस्तुत भस्म में धव के फूल के रस
"आविर्भूतप्रथममुकुला कन्दलीश्चानुकच्छम् । तथा काढ़े की भावना दें, इसी तरह काकोली,
(मेघदूत) मुलहठी, जटामांसी,बला, गुलसकरी, कंघी, कमल |
दे० "कन्दली" । ( ४ ) केला । (५) एक कन्द, हिंगोट, दाख, पीपल, बाँदा, सतावर, साल |
प्रकार का पक्षी। पर्णी, पृष्टिपर्णी, मुग्दपर्णी, मासपर्णी, फालसा, कन्दली कुसुम-संज्ञा पु० [सं० क्री०] (१) कसेरू, महुवा, केबांच प्रत्येक के रस की पृथक खुमी । शिलीन्ध्र । श० च० । (२) केले का पृथक भावना देकर सुखाता जाय, पुनः इस चूर्ण |
फूल । में इलायची, तज, पत्रज, जटामांसी, लवङ्ग, अगर, | कन्द वर्ग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कन्दों का समाहार केशर, नागरमोथा, कस्तूरी, पीपल, सुगन्ध वाला | कन्दजाति मात्र । जैसे-बिदारीकंद, शतावरी,
और भीमसेनी कपूर एक-एक शाण चूर्ण कर मृणाल, विस, कशेरू, शृङ्गाटक, (सिंघाड़ा), मिलावें।
पिंडालु, मध्वालु, हस्त्यालु, काष्टालु, शङ्खालु, मात्रा-४ मा०।
रक्रालुक, इन्दीवर और उत्पल श्रादि कंदों के गुण तथा प्रयोग-मिश्री ४ मा० आमला ४ | समूह को 'कन्दवर्ग' कहते हैं। मा० और बिदारी कन्द ४मा० इनका बारीक चूर्ण गुण-उन कद रन पित्तहर, शीतल, मधुर, बनाएँ पुनः १० मा० घृत, १० मासे चूर्ण और ४ गुरु, बहुशुक्रकर अोर स्तन्यबर्द्धक होते हैं। सु० मा०, रस मिलाकर भक्षण करें, और ऊपर से ८ सू० ४६ अ०। अत्रि संहिता के अनुसार तो. गोदूध पान करें, इसके सेवन से अनेक स्त्रियों
"शूरणः पिण्डपिण्डालू पलाण्डुगुञ्जनस्तथा, से रमण करने की शक्ति होजाती है । और बीर्य की ताम्बूलपर्णकन्दः स्यात् हस्तिकन्दस्तथा परः । हानि कभी भी नहीं होती । शा० ध० सं०।
वराहकन्दः अप्यन्यः कन्दस्याङ्का इमेस्मृताः। कन्दल-संज्ञा पुं॰ [ सं० पु. ] (.) कपाल । |
आदि कन्दो के समूह को कन्दवर्ग कहते हैं। खोपड़ा। (२) सोना । कनक । -धरणिः ।
अत्रि० १६ अ०। (३) करसायल । कृष्णसार मृग। काला हिरन | कन्दबर्द्धन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) सूरन । हे० १०। (५) गंडदेश। गाल । कनपटी। ज़मीकन्द । रा० नि० व०७ । (२) कटु शूरण (५) एक प्रकार का केला।
वैःनिधः। गला काटनेवाला सूरन । .