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औषध काल
औषध काल
संस्कार की सम्पत्ति युक्त, (४) योग्य अर्थात् व्याधि, देश, काल, दोप, दूष्य, देह, वय, और कालादि को जानकर देने योग्य उक्त चार गुण औषध के हैं; यथा, "बहुकल्प बहुगुणंसम्पन्न योग्य मौषधम्" वा० सू० ११ अ० ।
पुनः शोधन और शमन भेद से औषध के दो प्रकार होते हैं । जो औषध प्रकुपित दोष को बाहर निकालकर रोग दमन करती है, उसे “संशोधन"
और जो वहाँ का वहीं रोग शांत कर देती है, उसे "संशमन" औषध कहते हैं।
शरीर में उत्पन्नहोनेवाले वातादि दोषों को शोधनकर्ता प्रधान ये तीन औषधे हैं-यथा, (१) वायु का शोधन करनेवाला तेल वा काथादि की वस्ति गुदा में देना।। (२)पित्त को शोधन करनेवाली औषधे वैरेचनिक औषध हैं, जो मुख द्वारा पान करने से भीतरवाले मवाद को गुदा द्वारा बाहर निकाल देती हैं। (३) कफ को शोधन करनेवाली वमनकारक औषध है, जो मुख द्वारा पान करने से दोषों को बाहर निकाल कर फेंक देती है।
शमन-कर्त्ता-जैसे, बादी में तैल, पित्त में घृत और कफ में शहद मुख्य औषध है।
मानसिक दोषों को दूर करने के लिए धैर्य और बुद्धि परम औषध हैं और पात्मिक विकारों के लिए योगाभ्यास, समाधि और ईश्वर के स्वरूप का विज्ञान परम औषध है। ईर्षा, मद, मोह और कामादि जन्य विकारों की गणना मानसिक विकारों में है।
(२) सोंठ । शुठी। र० सा० सं० औषध मारण गण।
वि० [सं०नि०] श्रोषधि जात । जड़ी-बूटी से बना हुआ। औषधकाल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] औषध सेवन करने का समय। औषध सेवन के ये १० काल हैं।
(१) अन्नन (जो औषध खाई जाती है, उसके पचने के पीछे अन्न खाना ), (२) अन्नादि (औषधके सेवन करते ही भोजन करना), (३) मध्यकाल, (आहार के बीच में औषध | सेवन), (४) अन्तकाल ( भोजन करके औषध
सेवन ), (५) कवलांतर (एक ग्रास खाकर औषध ले लेना फिर दूसरा ग्रास खाना), (६) ग्रासे ग्रासे (ग्रास-ग्रास में मिलाकर औषध खाना), (७) मुहुमुहुः ( भोजन करके वा बिना भोजन किए थोड़ी थोड़ी देर के अंतर से औषध खाना), (८) सान्न (श्राहार के साथ औषध खाना). (६) सामुद्ग ( आहार के पहिले और पीछे औषध सेवन ) और (१०) निशि (रात में सोने के समय औषध खाना)।
रोगपरत्व से औषध-काल यदि रोगी और रोग दोनों बलवान हों, तो कफ की अधिकतावाले रोग में "अन्नन" औषध देवे अर्थात् भोजन करने से बहुत पहले औषध देनी चाहिए। जिससे औषध पच जाय।क्योंकि"अन्नन"
औषध अतिवीर्य होती है। अपानवायु के प्रकुपित होने पर अाहार करने से पहिले औषध सेवन करें अर्थात् श्रौषध सेवन करते ही भोजन करलें। समानवायु के प्रकुपित होने पर भोजन के बीच में औषध सेवन करें। व्यान वायु के कुपित होने पर भोजन के अंत में प्रातःकाल का भोजन करते ही औषध सेवन करें। उदानवायु के कुपित होने पर सायंकाल का भोजन करने के पीछे औषध सेवन करे। प्राणवायु के कुपित होने पर ग्रास-ग्रास में मिला कर वा दो-दो ग्रास के बीच में औषध सेवन करना चाहिये । विष, वमन, हिचकी, तृषा, श्वास और कासादि रोगों में बार-बार औषध देनी चाहिए । अरुचि में अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थों के साथ औषध देवें। कंपवात, आक्षेपक
और हिक्का रोग में, लघु भोजन करें और आहार के पहिले और पीछे औषध देवें । कण्ठ से ऊपर वाली व्याधियों में रात में सोने के समय औषध सेवन करना उचित है । वा० सू० १४ अ० ।
औषध योजना काल आयुर्वेद में औषधों की सम्यक् योजना के लिए दो प्रकार का काल कहा गया है। (१)क्षणादि
और ( २) व्याधि का अवस्था काल । __क्षणादि से लव, बेटि, मुहूर्त, याम, दिन, रात, पक्ष, महीना, ऋतु, अयन और संवत्सर का ग्रहण है। यथाः- 'पूर्वाद्धे वमनं देयं मध्याह्न च विरेचनम् । मध्याह्न किंचिदावृतेवस्तिं दद्याद्विचक्षणः"।