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________________ कररुक १२५५ करेला (Stomachic) होता है। डीमक ने मूल त्वक् को ( Counter-irrivant) लिखा है | आमयिक प्रयोग-आमाशयिक प्रदाह | (Gastric irritation ) जनित वमन एवं उदरस्थ वेदना जैसे कतिपय लक्षणों के उपशमनार्थ और क्षुधा वर्द्धनार्थ इसकी जड़की छाल परमोपकारी होती है । स्वेदाधिक्य की कतिपय दशाओं में भी यह उपकारी प्रमाणित हुई है और इसके व्यवहार से बहुतांश में स्वेद आना रुक जाता है । इसकी पत्ती में भी सुधाभिजनन गुण वर्तमान होता है। ( मे० मे० मै० पृ. ३२) जलोदर में इसकी पत्ती वा जड़की छाल ६ | मा० पीसकर २१ दिन तक निरंतर प्रातः सायं काल सेवन करने से उपकार होता है। बवासीर की सूजन मिटाने के लिये इसके पत्तों की लुगदी बना कर बाँधना चाहिये। इसकी छाल के चूर्ण को सिरके में घोलकर पिलाने से हैजे में लाभ होता है। इसके पत्तों का साथ पिलाने से उपदंश मिटता है। कर्नल चोपरा के मतानुसार यह शांतिदायक और मूत्रल है। कैंपबेल के अनुसार छोटानागपुर में इसकी छाल देशी शराब के साथ विसूचिका रोगमें दी जाती है। एटकिन्सन के मतानुसार उत्तरी भारतवर्ष में इसके पत्ते बवासीर, फोड़े, सूजन और जलन पर लगाने के काम में लिये जाते हैं । करेरुक-संज्ञा पु० [सं०] करेरुश्रा । भा० । करेल- बं०] बाँस। करेल्लकी-[ कना० ] संभालू । म्योड़ी । निगुडी। करेल्लकी गिडा-[ कना०.] काला संभालू । करेलन-[राजपु.] करेला । करेला-संज्ञा पु० [सं० कारवेल्लः] एक सुदीर्घ प्रारोही बता जिसकी पत्तियाँ पाँच नुकीली फांकों में कटी होती है । ये शिरावंधुर (Sinute) एवं दंतित होती हैं। कोमल पत्र का अधः पृष्ठ विशेषतः नादियाँ न्यूनाधिक ( Villous) होती है। प्रकांड न्यूनाधिक लोमश होताहै । पुष्प-वृत क्षीण होता है और उसके मध्य प्रायः भाग में एक वृक्काकार पौष्पिक-पत्रक होता है। पुष्प वृतमूल से स्त्री-पुष्प निकला होता है । फल स्थूल दीर्घाकार वा अंडाकार होता है जिसके छिलके पर उभड़े हुये लंबे-लंबे और छोटे बड़े दाने वा अर्बुद होते हैं या धारियाँ पड़ी होती हैं । बीज अंडाकार चिपटा होता है । बीज प्रांत स्थूल एवं कटावदार होता है और रक्तवर्ण (Aril ) होती है । पुष्प मध्यमाकृति और पाहु पीत वर्ण के होते हैं। कच्चे फल हरे रंग के और अत्यन्त कड़वे, पर रुचिकारी होते हैं। पकने पर ये पीले और भीतर से ये लाल हो जाते हैं, तथा इनकी कड़वाहट कम पड़ जाती है। __ करेला भेद-करेला दो प्रकार का होता है। एक बैशाखी जो फागुन में क्यारियों में बोया जाता है, जमीन पर फैलता है और तीन चार महीने रहता है । इसका फल कुछ पोला होता है। दूसरा बरसाती जो बरसात में बोया जाता है। झाड़ पर चढ़ता है और सालों फूलता फलता है। इसका फल कुछ पतला और ठोस होता है। प्राकृति भेद से भी यह दो प्रकार का होता है। बड़ा करेला वा करेला । (करला -बं.) और छोटा करेला वा करेली ( उच्छे -बं०)। इनमें बड़े का फल अपेक्षाकृत दीर्घ और छोटे का शुद्र अंडाकार होता है। करेली की बेल भी करेले की बेल के समान सुदीर्घ नहीं होती है। यह स्तम्ब• कारिणी एवं भूलुण्ठिता होती है । रंग रूपाकृति भेद से करेला अनेक प्रकार का होता है। करेला प्रायः हरे रंग का होता है। पर कहीं कहीं सफ़ेद करेला भी देखने में आया है। यह बहुत लंबा होता है। मालवा और राजपुताना में सफ़ेद करेला हाथ भर तक का देखा गया है। यह उत्तम होता है। इसका छिलका पतला होता है । __ कहीं कहीं जंगली करेला-बनज कारवेल्ल भी मिलता है जिसके फल बहुत छोटे और बहुत कड़वे होते हैं । इसे करेली वा बन करैला कहते हैं । इसका फल सर्वथा छोटा करेला व करेलो के तुल्य होता है । भेद केवल यह है कि इसमें
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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