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कदली
२०१३
छोटे केले को जिसकी फली एक उँगली के • बराबर मोटी और लंबी होती है 'सोनकेला' और 'रायकेला' कहते हैं। बहुत बड़े केले का नाम "भैंसा" व "भैंसिया” है।
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केले की कृषि
कठिन, नीरस और केवल वालुकामय स्थान को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की भूमि में केला लग सकता है। गीली और तालाब की निकली मट्टी में यह बहुत अच्छी तरह उत्पन्न होता है । केले में कचिला मट्टी और ख़ाक को खाद दी जाती है।
कदली संबंधीय प्रवाद
तालीफ़शरीफ़ नामक फ़ारसी के निघंटु ग्रन्थ में लिखा है कि केले से कपूर निकलता है। किन्तु ईन-अकबरी इस बात को नहीं मानता। हिंदी के व्रजचंद्र नामक किसी कवि ने भी नायिका भेद में जंघा का वर्णन करते हुये कहा है - " कपूर खायो कदली ।" परन्तु यह सत्य नहीं, कपूर इससे सर्वथा एक भिन्न वृक्ष से प्राप्त होता है ।
अंगरेजी में लोग इसे बाइबिलोक निषिद्ध फल बतलाते हैं । लडलफ के कथनानुसार बाइबिलोल 'डुडोइम' (Dudoim ) फल ही केला है । कोई-कोई इसे निषिद्ध फल न मान स्वर्गोद्यान में मानव का प्रथम खाद्य समझते हैं। अंततः चाहे जो हो पर स्वर्गोद्यान का संस्रव रहने से ही संभवतः केले का नाम पाराडिसिका ( Paradisic) पड़ा है क्योंकि अँगरेज़ी में पाराडाइज़ ( Paradisi ) स्वर्ग को कहते हैं ।
बंगालियों में भी केले के संबंध में इसी प्रकार की अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं । उनमें से एक के अनुसार केले के पेड़ पर गिरने से फिर वज्र स्वर्ग को उठकर नहीं जा सकता । चोर लोग इस वज्र को रात के समय चुपके से उठाकर खिड़की से लोहार के घर डाल श्राते हैं । और लोहार उससे चोर का खता बना उसी खिड़की में रख देते हैं । चोर भी रात को श्राकर चुपके से वह खंता उठा ले जाते हैं। इससे कहते हैं—चोर और लोहार कभी नहीं मिलते। दूसरा प्रवाद केले की षष्ठी देवी का
कदली
प्रिय खाद्य बतलाया जाता है । तीसरे प्रवादके अनु सार केला बुड्ढोंका खानेमें बहुत अच्छा लगताहै । इतिहास
भारतवर्ष ही केले का श्रादि वास स्थान है । यह भारत के अनेक प्रदेशों में अब भी जंगली होता है । जहाँ तक ज्ञात होता है भारतवर्ष में इसकी कृषि प्रागैतिहासिक काल से हो रही है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं। प्लाइनी के अनुसार यूनानी सम्राट् सिकंदर महान ने जब ( ३२५ ई० सन् से पूर्व ) भारतवर्ष पर श्राक्रमण किया था, तो उसके साथियों ने भारतवर्ष में इसका अवलोकन किया था । उसके अनुसार ऋषि वा साधुगण उक्त वृक्ष की साया में ठहरते और इसका फल खाते थे । इसी से इसकी लेटिन संज्ञा (Sapientum ) हुई । मध्ययुग में इसने औषध रूप से कुछ प्रसिद्धि प्राप्त की । डिमक के मन से सावफरिस्तुस ( Theophrastus ) और प्लाइनी दोनों ने पल नामक एक वृत्त का उल्लेख किया है । उनके अनुसार इसकी पत्ती पक्षियों के पक्ष सदृश और तीन घन फुट ( Cubits) लंबी होती है। इसकी छाल से ही फल उत्पन्न होता है जो अपने मधुर एवं सुस्वादु स्वरस के लिये विख्यात है । इसका केवल एक फल ( गहर ? ) चार व्यक्तियों को तुष्ट करने के लिये पर्याप्त होता है । यह वृक्ष ही कदली अनुमान किया जाता है । 'पल' का अर्थ पत्र है । किंतु मुझे यह ज्ञात नहीं कि केले के अर्थ में कभी इसका प्रयोग हुश्रा है । (फा० इं० भा० ३ पृ० ४४३)।
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श्राव्य भाषा में इसे 'मौज़' और 'तुलह ' कहते हैं । क़ुरान में 'तल्हू' नाम से इसका उल्लेख हुआ है । मौज़ शब्द के अंतर्गत Mesne ) इसके फल का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार यह कासयुत कंठ एवं उरः चत और वस्ति प्रदाह में उपकारी है । वे इसे कामोद्दीपक मूत्रल और मृदुरेचक मानते हैं. और शर्करा वा मधु के साथ पकाने की सिफ़ारिश करते हैं। इसके अत्यधिक सेवन से अजीर्ण हो जाता है । श्रडु