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कस्तूरीमृग
हिसाब
कारण यह है कि कस्तूरी की थैली केवल युवा हिरन के उदर में होती है । एवं दूर से देखने पर नर और मादा हिरन की रूपाकृति में कोई अंतर नहीं जान पड़ता । अस्तु, एक भट्टी की सामग्रीमृगनाभि प्राप्त्यर्थं शिकारी लोग लोभ के वशीभूत होकर बिना विवेक-बुद्धि के काम लिये छोटे बड़े, नर-मादा सभी हिरनों की हत्या कर डालते हैं । इस प्रकार आवश्यकता से कहीं अधिक निर्दोष जीवों की हत्या हो जाती है । लगाया गया है कि केवल एक श्रचिनलू शहर से प्रतिवर्ष २००० भट्टियों का चालान बाहर जाता है । श्रतएव वहाँ प्रतिवर्ष ६०,००० मृग मृत्यु की घाट उतरते हैं। इसके अतिरिक्त एक साथ काटानसिंग, वालांग इत्यादि नगरों के वार्षिक चालान पर दृष्टि निःक्षेप करने से पता चलता है, है, कि वहाँ प्रतिवर्ष १००००० एक लक्ष मृगों के प्राण विनष्ट किये जाते हैं। इसके सिवा भारतवर्ष में ही तथा सुदूर पूर्व में इसका बहुत बड़े पैमाने पर उपयोग होता है । औषध के अतिरिक्त सुगंधियों में भी इसका प्रचुर प्रयोग होता है। फ्रांस इसका सबसे बड़ा खरीदार है । कुल निर्यात का लगभग तो केवल फ्रांस ही खरीदता है । कस्तूरी के व्यापारिक महत्व का कुछ निर्देश इस वस्तुस्थिति से भी प्राप्त हो सकता है, कि केवल चीन से निर्यात कस्तूरी का मूल्य ७०,००० पौंड और १००,००० पौंड के मध्य न्यूनाधिक हुआ करता है, जो उस वृहत् परिमाण के सामने कहने को कुछ भी नहीं है जिसकी खपत स्वयं चीन में ही हो जाती है । जहाँ यह सुगंधियों के लिये केवल इसकी ज़मीन ( base ) ही नहीं दी जाती श्रपितु उत्तेजक श्रौषधों के उपादान स्वरूप से भी यह व्यवहार में आती है। इसके सिवाय संयुक्त राज्य (अमरीका) तथा दुनिया के अन्य भागों को भी भारतवर्ष से कस्तूरी का पर्याप्त मात्रा में निर्यात होता है। वैट के अनुसार सन् १८७८ से १८८८ ई० तक के दश वर्षीय काल में भारतवर्ष से बाहर जानेवाली निर्यात कस्तूरी का कुल परिमाण ४४, १६५ श्राउंस था जिसकी कीमत लगभग ११, १७५७६ रुपये होती हैं ।
८० [फा०
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कस्तूरीमृग
उपर्युक्त बातों से यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि प्रतिवर्ष कितने अधिक जीवों की हत्या होती होगी । साथ ही इनकी जनन क्षमता भी सामान्य होती है और ये उसी समय फँसाये एवं संहार किये जाते है, जब इनमें यौवन स्पृहा जागृत होती है । अस्तु, यदि विना ( अर्थात् जोड़ खाने की ऋतु में) किसी रोक टोक के इसी प्रकार इनकी मृत्यु का क्रम चलता रहा, तो कतिपय प्रकृति सेवियों द्वारा कथित भावी भय के अनुसार भविष्यत में इनका वंशही पृथ्वी से सर्वथा विलुप्त हो जायगा और फिर कस्तूरी का प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ होगा ।
कहते हैं लगभग छः वर्ष हुये दक्षिण-पूर्वगत सारंग के लामा लोगों ने इनकी वंश रक्षा के हेतु, यह राजाज्ञा प्रचारित की थी कि जो शिकारी कस्तूरी मृग की हत्या करता हुआ देखा जायगा, वह मंदिर के किवाड़ों पर दोनों हाथ छेदकर लोह शलाका में विद्ध कर दिया जायगा । लामा के उक्त प्राणदंड स्वरूप कठिन दंड विधान के रहते हुये तिब्बत की सीमा से वार्षिक कस्तूरी की आय की मात्रा पर्याप्त थी ।
यह विचारणीय है कि बिना हत्या किये कस्तुरीमृग से मृगनाभि संग्रह की जा सकती है अथवा नहीं ? यदि इन प्राणियों को जंगल से पकड़ कर किसी खुली जगह में बाड़े के अंदर बंद किया जावे तो कस्तूरी नहीं मिलेगी। पर हाँ इन्हें किसी एक बड़े जंगली स्थान में बन्द करने के बाद इनसे कस्तूरी प्राप्त करने की कोई पद्धति निकाली जा सकती । यह जीव अनेक समय धूप में लेटकर विश्राम उस समय इसके शरीर में जहाँ कस्तूरी वह स्थल भली भाँति देख सकते हैं उपयुक्त पद्धति से बिना उत्पीड़न के की जा सकती है।
करता है । रहती है और किसी
कस्तूरी प्राप्त
कस्तूरीमृग के पर्य्या०—कस्तूरीमृगः, कस्तूरी हरिण, मृगनाभि हरिणः, गन्धमृग, गन्धवाह -सं० । कस्तूरिया हिरन कस्तूरा मृग; कस्तुरी मृग, कस्तूर, कस्तूरा, कस्तूरिया, कस्तूरिया मृग, - हिं० । श्राहूए मुश्की, श्राहूए खुसन - फ्रा० |