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कपूर
सहित स्वेद भाना, हस्त-पाद की शीतलता, धातूष्मा का हास एवं धर्म, तथा प्राक्षेप और अन्त में मृत्यु पाकर उपस्थित होती है। संतान प्रसवोत्तर जात मनोविकार में अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में कपूर व्यवहृत किया जा सकता है। कृमि पहिष्करणार्थ कपूर की वस्ति पिचकारी करना हितकर है। क्षत के लिए प्रक्षालन औषध-धोने की दवा के रूप से कपूर व्यवहृत होता है । कृमि भक्षित दंतशूल-प्रशमनार्थ कपूर को सुरासार में द्रवीभूत कर, इसके द्वारा कृमि-भक्षित दंत-गह्वर पूरण करें। नासास्राव (Cory za) में कपूर | का नस्य हितकर है । घृष्ट-पिष्ट एवं मोच आने पर तथा प्रामवातिक संधिशूल एवं पेशी की प्राक्षेप वेदना में ४ भाग जैतून-तैल और एक भाग कपूर एकत्र मिश्रित कर मर्दन करें। मेटीरिया मेडिका श्राफ इण्डिया-२य भाग ५२६-७ पृ०।
नादकर्णी-कपूर एक अति विशिष्ट गंधिद्रव्य है जो स्वाद में तिक, चरपस और सुरभिपूर्ण होता है। यह अत्यन्त उड़नशील एवं ज्वलनशील होता है। और उज्ज्वल प्रकाश से जलता एवं बहुत धूम्र देता है। टायफस नामक सन्निपात ज्वर ( Typhus ) विशेष मसूरिका (Small pox ) एवं श्रान्त्रिक ज्वर (Typhoid ) जातीय समस्त प्रकार के ज्वर तथा विस्फोटक (Eruptions) में और शीतला ( Measles) ज्वर प्रकोपजन्य प्रलाप, कुक्कुर कास, हिका, प्राक्षेपयुक्त श्वास रोग, याषापस्मार, कामोन्माद (Nymphomania) कष्टरज, प्रसूतिकोन्माद, कंपवात, अपस्मार, वातरक विशेष (Atonic gont)माखोखोलिया, उम्र प्रामवात तथा चिरकालानुबन्धी कास प्रभृति में भी यह उपयोगी है।
कर्नल चोपरा के अनुसार कपूर उत्तेजक, शांति दायक और उदराध्मान को दूर करता है।
बर्डवुड के मतानुसार यह प्राक्षेप निवारक, उपशामक, वातमण्डल को शांति प्रदान करने वाला, हृदयोत्तेजक, उदराध्मान निवारक और ज्वरघ्न है । वाह्य प्रयोग करने पर यह वेदनाहर औषध का काम देता है।
एलोपैथी के मत से कपूर के वाह्यान्तक प्रभाव तथा प्रयोग
वहिः प्रभाव . कठिनीभूत उड़नशील तैल-(Stearopt ene ) होने के कारण कपूर सुगंधित तैलो ( Volatile oils ) की भाँति प्रभाव करता है। यद्यपि अलकतरे (Coas-tar) की श्रेणी तथा फेनोल-समुदाय के द्रव्यों के उदाहरण स्वरूप बहुशः उड़नशील तैलों की अपेक्षा यह निर्बलतर है तथापि सामान्य पचन निवारक ( Antiseptic) होता है। यह स्थानीय धमनियों (Vessels) को उत्तेजित करता और लालिमा एवं ऊष्मा उत्पन्न करता है। इस प्रकार यह लौहित्योत्पादक प्रभाव करता है। - अस्तु, इसके प्रयोग से स्वगीय धमनियाँ परिविस्तृत हो जाती है और वहाँ पर उष्णता का अनु भव होता है। स्थानीय नाड़ियों पर प्रथम इसका उत्तेजक प्रभाव होता है और बाद को नैर्बल्यकारी । इसलिये प्रथम तो उष्णता अनुभूत होती है, परंतु बाद को शैत्य प्रतीत होता है और संज्ञा-शक्ति किसी प्रकार कम हो जाती है । अस्तु, यह किसो भाँति स्थानीय संज्ञाहर-श्रवसन्नताजनक है।
आंतरिक प्रभाव मुख-कपूर के भक्षण से प्रथम तो मुंह में शीतलता का अनुभव होता है। परन्तु शीघ्र बाद को ही उष्मा प्रतीत होती है । इससे स्थानीय रक्कसंवहन-क्रिया तीव्र हो जाती है और अत्यधिक श्लेष्मा एवं लाला-स्राव होने लगता है।
आमाशय कपूर-भक्षण से पाकस्थाली में ऊष्मा का अनुभव होता है, आमाशयगत रक नालियों की रगें परिविस्तृत हो जाती हैं, प्रामाशयिक रसोद्रेक अभिवर्द्धित हो जाता है, आमाशय की गति तीव्र हो जाती है और गुदा की संकोचन क्रिया शिथिल पड़ जाती है। प्रस्तु, कपूर भामाशोहीपक (Gastric-Stimulant) एवं वातानुलोमक ( Curminative) है । किंतु बड़ी मात्रा में यह प्रामाशय को क्षुभित करता
और मिचली पैदा करता और वमन लाता है। यह प्रांत्र को विशोधित (Antiseptic) भी करता है और प्राक्षेप निवारण करता है।