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________________ कंघी लगते हैं । जिनमें खड़ी २ कमरखो वा कँगनी होती है। पत्तों और फलों पर छोटे २ घने नरम रोए होते हैं जो छूने में मखमल की तरह मुलायम होते हैं । फल बिचित्र चक्राकृति का होता है जिसमें प्रायः १८ - २० फाँके मंडलाकार सन्निविष्ट होती हैं। फल पक जाने पर एक-एक कमरखी वा फाँक के बीच कई-कई काले २ दाने निकलते हैं । ये छोटे श्रोर चपटे होते हैं और इनका सिरा बारीक होता है । इन बीजों में से अत्यन्त लबाब निकलता है। २४१६ इसकी एक छोटी जाति और है जो जमीन पर बिछी हुई होती है। इसके सम्पूर्ण श्रवयव उपयुक्त लिखितानुसार, पर उनसे छोटे होते हैं । हकीम शरीफ खाँ ने तालीक़ शरीफ्री में लिखा है कि कंघी का फूल गावजबान के फूल की तरह नीला, किंतु उससे क्षुद्र तर एवं ललाई लिये होता है। इसका फल फव्वारे के शिर की तरह होता है, इत्यादि । परंतु नीलपुष्पी अतिबला देखी नहीं गई । रासायनिक संघटन - इसकी पत्ती में प्रचुर परिमाण में लुनाब होता है जो उदासीन बिक ऐसीटेट और फेरिक कोराइड से श्रवक्षेपणीय होता है। इसमें किंचित् कषायिन ( Tannin ) सैन्द्रिकाम्ल और ऐस्पैरागीन के चिन्ह भी पाये जाते हैं । इसकी राख में एलकलाइन् सल्फेट्स, क्लोराइड्स, मैग्नीसियम् फास्फेट और कैल्सियम् कार्बोनेट पाये जाते हैं । इसकी जड़ में भी एस्पैरापाई जाती है । व्यवहारोपयोगी अंग - इसकी जड़, पत्तियाँ छाल और बीज सब दवा के काम में आते हैं । औषध निर्माण — बहिर प्रयोगार्थ ( १ ) पत्र काथ निर्माण क्रम- इसकी ताजी पत्ती एक मुट्ठी एक पाइंट पानी में कथित कर क्वाथ प्रस्तुत करें, ( २ ) इसकी पत्ती को कुचलकर निकाला हुआ लुनाब, (३) इसकी पत्ती वा मूल का फांट और बीज वा छाल का काथ ( १० में १ ) तथा बीज का मिश्र चूर्ण । इसको यथाविधि प्रस्तुतकर कागदार बोतल में भर कर रखें । कंघी मात्रा -१ से २ ड्राम यह चूर्ण दिन रात में ३-४ बार सेवन करें । सता माजून कंघी - प्रतिबला बीज ५ तो०, वर १० तो ० इनको पीसकर बारीक चूर्ण करें, चूर्ण से द्विगुण मिश्री वा शहद द्वारा यथाविधि प्रस्तुत करें। गुण प्रयोगादि - यह माजून ३ माशे की मात्रा में प्रातः सायंकाल खिलाने से कामावसाय र शुक्रप्रमेह में उपकार होता है। 1 अतिबला तैल - एक छटाँक कंघी के पत्तों को पीसकर छोटी २ कई टिकिया बनायें । पुनः किसी कटोरी आदि में १ छटाँक गोवृत डालकर गरम करें और उसमें टिकियों को छोड़ देवें । जब टिकिया जल जाए, तब उन्हें निकाल कर फेंक देवें और घी को साफ करके रखें । गुण, प्रयोगादि - वृक्कशूल एवं सिकता में पूर्ण परीक्षित है । ५ तोले यह घी गरमा गरम घूँट घूँट पिलाने से तत्काल वेदना शांत होती है और सिकता प्रभृति निर्गत होती है । अतिवला चार - फल के सम्यक् परिपक्क हो चुकने के उपरांत इसके समग्र तुप को उखाड़ कर साया में सुखायें। सूखने पर उसमें आग लगाकर जलायें और राख को पानी में डालकर तीन दिन तक रख देवें । प्रतिदिन किसी लकड़ी से उसे कई बार हिला दिया करें। तीन दिन के उपरांत ऊपर निथरा हुआ पानी लेकर पकायें । समग्र जल जाने पर क्षार को एकत्रित कर पीसकर शीशी में सुरक्षित रखें। गुण प्रयोगादि - यह क्षार प्रभावत: (सूत्रकर और अश्मरीघ्न है । श्राध माशा यह क्षार खाकर ऊपर से सफ़ेद जीरा ३ मा०, कुलथी ३ मा०, सौंफ ६ मा० - इनको जल में पीस छानकर पियें । इसी प्रकार प्रातः सायंकाल सेवन करें। इसे कुछ दिन सेवन करने से अश्मरी और सिकता आदि खड खंड होकर निकल जाती है । यदि श्राध माशा उक्त क्षार मधु में मिलाकर चटायें, तो कफज काल और दमा में बहुत उपकार हो । यदि उक्त चार १ भाग, शुद्ध रसांजन २ भाग इनको मिलाकर चना प्रमाण की वटिकायें प्रस्तुत
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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