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कण्ठीरवी
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कण्ठीरवी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] अडूसा | वासक वृक्ष । बाँसा । बसीङ ( गढ़वाल ) । रा०नि०
'व० ४ ।
कण्ठील-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) ऊँट । क्रमे
लक | मे० लत्रिक० । ( २ ) सूरन । जमीकंद | कण्ठीला -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की
द्रोणी | मे० लत्रिक० । मटकी । मथने का बर्तन | कण्ठशोथ - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] कंठ की सूजन । गले की सूजन |
कण्ठसूत्र - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( १ ) माला । हार । ( २ ) एक प्रकार का श्रालिंगन यथा— यः कुर्वते वक्षसि वल्लभस्य, स्तनाभिघातं निविड़ोपघातात् । परिश्रमार्त्तः सनकैर्विदिग्धा
स्तत्कण्ठ सूत्रं प्रवदन्तिज्ज्ञाः ॥ ( रतिशास्त्र ) कण्ठागत- वि० [सं० त्रि० ] वहिर्गमनोन्मुख | कंठ में उपस्थित | जो गले में श्राकर लगगया हो । कण्ठिकास्थि - संज्ञा पुं० [सं० क्वी० ] एक अस्थि विशेष (Lingual ar Hyaidbone )।
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'कण्डला
कण्डक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार का कास रोग | खाँसी । वै० निघ० ।
योग - सारिवा, ईख को जड़, मुलहठी, पीपल, मुनक्का, विदारीकंद, कायफल, हंसराज, बड़ीकटेरी, और छोटो कटेरी इन १० चीजों का नाम कण्ठ्य महाकषाय है ।
गुण तथा उपयोग-विधि -- इसे उचित मात्रा में क्वाथ कर पीने से कंठ रोग का नाश होता है च० सू० ४ श्र० ।
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कण्ठ्यवर्ग-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कंठ के लिये दस उपकारी श्रोषधियों का समूह । कण्ठ्य महाकषाय । च० सू० ४ प्र० । दे० "कव्यमहाकषाय" ।
कण्डन-संज्ञा पु ं० [सं०ली० ] ( कडि= रौंदना, भूसी अलग करना ) ] ( १ ) धान को कूटकर चावल और भूसी अलग करना । कूटना काँड़ना । निस्तुपीकरण | हे०च० । ( २ ) तुष । भूसी । श्रनाज का उतरा हुआ छिलका । "क्रियां कुर्यात् भिषक् पश्चात् शाली तण्डुल कण्डनैः ।" ( सुश्रुत ) कण्डनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) प्रोखली । काँड़ी | उलूखल । ( २ ) मूसल । त्रिका० । कण्डरव्रण - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] व्रणरोग | वै०
निघ० ।
श्र० शा० ।
कण्ठ्य - वि० [सं० क्रि० ] ( १ ) गले से उत्पन्न । (२) कंठ वा स्वर के लिये हितकारी । जैसे— कण्ठ्य औषध । (३) कफ निकालनेवाला | श्लेष्म प्रसेकि । स्वरक्षर | Eupectorant.
संज्ञा पुं० [सं० पु ं० ] वह वस्तु जिसके खाने से ज्वर अच्छा हो जाता है वा गला खुलता है । कण्ठ, कण्ठरोग वा स्वर के लिये हितकारी पदार्थ या औषध । स्वर्य । स्वर शोधिनी ।
कण्ठ्य महाकषाय-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कंठ रोग | कण्डरा कला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कण्डरा के
में प्रयुक्त उक्त नाम का एक कषाय ।
मध्य स्थित झिल्ली ।
कण्डरा -संज्ञा स्त्री० [सं० पु० ] ( १ ) बाहु पृष्ठ से अंगुलि पर्यन्त आनेवाली कंडरात्रों के वात से पीड़ित होने पर वाहुद्वय का कार्य बिगड़ जाता है । इस रोग का नाम "विश्वाची" है । ( २ ) अस्थिवत् स्थूलशिरा | महास्नायु । रा० नि० ० १८ | ये शरीर में सोलह हैं । यथा— पैर में चार हाथों में चार, पीठ में चार और गरदन में चार- इस प्रकार कुल सोलह हुई । "करपादस्थ कंडराणां प्ररोहरूपा नखा जायन्ते । पृष्ठ कटि कंडराभ्यो विम्बः, ग्रीवा हृदय कंडराभ्यो मेदञ्च जायते ।। (सु शा ५ अ . ) । महत्य: स्नायवः प्रोक्ताः कंडरास्तास्तु षोडश ॥ प्रसारणाकुञ्चनयोः दृष्टंतासां प्रयोजनम् ॥ भा० | Tendon
कण्डरा कल्पा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] पेशी विशेष | (Semiten dinosus musele)
प्र० शा० । ह० श० र० ।
कण्डराधर-वि० [सं० त्रि० ] कण्डरा के अधो भाग में स्थित | (Snbten dinous ) अ० शा० ।
कण्डरा वितान - संज्ञा पु ं० [सं०] कण्डरा का खिंच जाना | (Sprain of tendon ) कण्डला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कपिकच्छू । केवाँच |