SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कमल २१७० उत्पलादि का यह गया दाह, रक्त और पित्त इनका प्रसादक तथा प्यास, दाह, हृदय के रोग, वमन, मूर्च्छा-इनको नाश करनेवाला है। 1 कमल के वैद्यकीय व्यवहार चरक - ( 1 ) रक्तपित्त में उत्पलादि किञ्जल्कउत्पल, कुमुद और पद्म- केसर धारक और रक्तपित्त 'प्रशमक द्रव्यों में श्रेष्ठ है । यथा "उत्पल कुमुदपद्मकिञ्जल्कं संग्राहक रक्तपित्त प्रशमनानाम्” । (सू० २५ अ० ) ( २ ) रक्तपित्त में मृणाल – कमल की मोटी जड़ का स्वरस, कल्क, क्वाथ एवं शीतकषाय रक्त पित्त में हितकारी है । यथा"दुरालभापपेंट का मृणालम् एतेसमस्ता गणशः पृथग्वा । रक्तं स पित्तं शमयन्ति योगा : " । ( चि० ४ श्र० ) (३) मूत्रकृच्छ में कमल - कमल और उत्पल का काढ़ा मूत्रकृच्छ रोगी को पीना चाहिये । यथा "पिवेत् कषायं कमलोत्पलानाम्” । (चि० २६ अ० ) वाग्भट - रक्तार्श में पद्मकेसर-कमल केसर को चूर्ण करके चीनी और नवनीत के साथ सेवन करने से अर्शजात रक्तस्राव निवृत्त होता है । यथा "शर्कराम्भोज किञ्जल्क सहितं वा तिलैः सह । अभ्यस्तं रक्तगुदजान् नवनीतं नियच्छति ॥ ( चि०८ श्र० ) चक्रदत्त - गुदनिगम वा काँच निकलने पर कमलपत्र - कमल के कोमल पत्तों को चीनी के साथ सेवन करने से गुदनिर्गम ( काँचनिकलने का रोग) निश्चित रूप से प्रशमित होता है । यथा"कोमलं पद्मिनीपत्रं यः खातेच्छर्करान्वितम् । एतन्निश्चित्य निद्दिष्टं न तस्य गुदनिर्गमः " ॥ (क्षुद्ररोग - चि०) भावप्रकाश - (१) ज्वरातिसार में पद्मकेसर1. उत्पल, अनार का छिलका ( दाड़िमत्व ) एवं पद्मकेसर इनका चूर्ण बराबर बराबर मिलाकर कसल चावल के धोवन के साथ सेवन करने से श्रतिसा नष्ट होता है । यथा "उत्पलं दाड़िमत्वक् च पद्मकिञ्जल्कमेव च । पीतं तण्डुलतोयेन ज्वरातिसार नाशनम् " ॥ (म० खं० श्रतिसार - चि० ) ( २ ) शूकर दंष्ट्रोद्भूत ज्वर पर पद्ममूलशूकर दंष्ट्राघात जन्य ज्वर होने पर कमल की जड़ को पीसकर गोघृत के साथ सेवन करें। यथा"राजीव मूलकल्कः पीतोगव्येन सर्पिषाप्रातः । शमयति शूकर दंष्ट्रोद्भूतं ज्वरं घोरम्” ॥ (म० खं० ४ भा० ) हारीत - मुख प्रवृत्त रुधिर में पद्मकेसरमुख द्वारा रक्तस्राव होने पर पद्मकेसर को चीनी के साथ सेवन करना चाहिये । यथापद्मकिञ्जल्क चूर्णम्वा लिह्याद्वा सितया पुनः । मुखप्रवृत्तरुधिरं रुणद्धयाशु.........”। (चि० ११ अ० ) A (२) प्रस्राव रोध में पद्मकन्द — तिलतैल में भूने हुए पद्मकन्द को गोमूत्र में पीसकर पीने से मूत्ररोध निवृत्त होता है । यथा“तैलेन पद्मिनीकन्दं पक्कं गोमूत्र मिश्रितम् । पिवेन्मूत्रनिरोधे तु सतीव्र वेदनान्विते ॥ ( च० ३० अ० ) बसवराजी - अपस्मार में कमलकन्द - श्वेत कमल की जड़, श्वेतमदार की जड़ दोनों को कूटकर प्रदरख के रस में घृत मिलाकर पकाएँ । पुनः इसका नस्य लेने से मृगी रोग का नाश होता है। यथा— श्वेतार्क मूलं श्वेतकमलमूलं च घृतेन सह संकुत्र्यार्द्रक स्वरसेन विपाच्य नस्यं देयम् । ( बस. रा० ) वक्तव्य चरक ने प्रसव योनि पुष्पों के मध्य पद्मादि का उल्लेख किया है । पद्मबीज गर्भस्थापक है । अस्तु, चलितगर्भा नारी को इसका सेवन करना चाहिये । यूनानी मतानुसार गुण-दोष - प्रक्रांत - ( फूल ) सर्द और तर, ( केसर और मृणाल वा डंडी ) शीतल और रूक्ष, ( कच्चे
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy