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कपास
२०६३
कपास
परीक्षित डाक्टरी प्रयोग (1) एक्सट्रक्टम् गासोपियाई एपियोल
३ मिनिम दोनों की एक गोली बनायें और ऐसी १-१ गोली दिन में दो बार दें।
उपयोग-कटरज में उपयोगी है। (२)एक्सटै क्रम्गासोपियाई लिक्विडम् १५ मि०
टिंक्च्युरा सिमिसिक्युगी १५ मि. स्पिरिटस क्लोरोफार्माई १० मि०
इन्फ्युजम् वेलेरियानी पाउंस तक ऐसी एक-एक मात्रा दिन में तीन बार दें। कष्ट रज में कल्याणकारी है।
गुणधर्म कपास मूल और मूल त्वक रजः प्रवर्तक तथा स्तन्य जनन है । (ई० मे० मे०-नादकर्णी)
गर्भाशय उत्तेजक, आर्तव जनक और स्नेहन है। इसकी क्रिया गर्भाशय पर 'अरगट को अपेक्षा उत्तम होती है, गर्भाशय का उत्तमतया संकोचन होकर रक्तस्राव बंद होता है। गंडमाला, अपची और स्तनरोगादि निवारक है। . कर्पास-मूल मूत्रल, रजः प्रवर्तक और स्निग्धता संपादक ( Demulcent ) है।-( Atkin son)
. आमयिक प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार
चरक-कुष्ठ रोग में कार्पासी त्वक् एवं पुष्पकपास को जड़ की छाल और पुष्प को पीसकर कुष्ठ पर प्रलेप करें । यथा
"त्वक् पुष्पं कार्पास्याः । पिष्ट्वा चतुविध: कुष्ठनल्लेपः” (चि० ७ १०)
वृन्द-कफजातिसार में कार्पासीमूल स्वरसकपास की जड़ की छाल का रस मधु के साथ कफातिसारी को पान करना चाहिये । यथा"तद्वत् कापास पर्कट योः स्वरस: समधुर्मतः"
(अतिसार-चि०) चक्रदत्त-श्वेत प्रदर में कार्पासीमूल-पाण्डु या कफजनित श्वेतप्रदर ग्रस्त नारी को कपास की जड़ की छाल चावल के धोवन में पीसकर पीना चाहिये । यथा
"*मूलं कार्पासमेववा।पाण्डुप्रदर शान्त्यर्थं प्रपिबेत तण्डुलाम्बुना" (असृग्दर-चि०)
नव्यमत अमेरिका में गर्भाशयगत रोगों में अर्गट की जगह इसका बहुल प्रयोग होता है। अस्तु, इसका काढ़ा गर्भशातक, अाशुप्रसवकारक और रजः प्रवतक रूप से व्यवहार किया जाता है। शिशु प्रसव काल में इसके सेवन से गर्भाशयिक द्वार खुल जाता है। इसको कष्टरज रजः रोध एवं गर्भाशयिक रक्तस्त्राव में वर्तते हैं और गर्भशातनार्थ भी इसका उपयोग करते हैं।
नोट-अमेरिका देश वासी ललनाएँ गर्भशातनार्थ इसकी छल बहुलता के साथ काम में लाती थीं, इसलिये वहाँ के डाक्टरों ने विस्तृत परीक्षण करके इसको वहाँ के फार्माकोपिया में सन्निविष्ट कर लिया । ( म० अ० डा०) ___ कपास की जड़ छाल एवं मूलस्वक निर्मित प्रवाही सार ये दोनों संयुक्त राज्य अमेरिका की फार्माकोपिया में आफिशल-अधिकृत हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्री-हबशियों को गर्भशातनार्थ इसका उपयोग करते देखकर ही प्रथम तद्देशीय चिकित्सकों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुवा। इसमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं कि यह गर्भाशय पर 'अर्गटवत् प्रभाव करता है और पीड़ितार्त्तव तथा शीतजन्य अनात्तव में उपयोगी है। इस हेतु इसका काढ़ा काममें पाता है जिसके प्रस्तुत करने की विधि यह है
काथ निर्माण विधि-कपास की जड़ की छाल १० तोला लेकर जौकुट कर ६० तोला जल में मिला श्राग पर चढ़ावें। जब ३० तोला जल शेष रहे, तब छान कर २॥ तोला या ५ तोला की मात्रा में दिन में ३-४ बार पिलावें । यदि रोग की तीव्रता ज्यादा हो तो २०-२० मिनट वा श्राध श्राध घंटे में इसे पिलाना चाहिये। प्रारम्भ में इसकी मात्रा बड़ी अर्थात् ६ से ७ तोला तक की देवे, बाद में कम करे । ३० से ६० बूंद तक की मात्रा में इसका प्रवाही सार इंडियन मेटीरिया मेडिका के अनुसार टिंक्चर भी व्यवहार किया जा सकता है। (फ्रा. इं० १ भ०-डी, पृ. २२५-६)