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श्रद्भिज
नाम के मधु द्वारा बनी हुई शर्करा । इसके गुण हाल मधु के समान हैं । रा० नि० ० १४ । यह कुष्ठादि दोषों को दूर करती और सर्व सिद्धि प्रदान करती है ।
श्रद्भिज्ज-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली ] ( १ ) पांशु लवण | नोना निट्टी से निकाला हुआ नमक | रा०नि० ०६ । (२) साँभरनमक । औद्भिद - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( १ ) श्रद्भिद लवण | साँभरनमक । राज० ( २ ) वृक्षादि जातद्रव्य | पेड़ इत्यादि से उत्पन्न होनेवाली चोज | वृक्षा से उत्पन्न होनेवाले मूल, वल्कल, काष्ठ, निर्यास, डंडल, रस, पल्लव, क्षार, तीर, फल, पुष्प, भस्म, तैल, कण्टक, पत्र, कन्द और अंकुर का नाम "दि" है । वैद्यकशास्त्र में उन सभी द्रव्य के ग्रहण को विविद्य
मान है । ० ।
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श्रौद्भिद-जल-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] पृथ्वी फाड़कर बड़ी धार से बहनेवाला जल । श्रद्भिन प्रस्तर सलिल । झरने का पानी । निम्न भूमि से ऊपर को आया हुआ जल ।
गुण - यह मधुर, पित्तनाशक और अत्यन्त विदाही है । सुश्रुत ने वर्षाकाल में वृद्धि के जल का प्रभाव होने पर इसी का व्यवहार विहित बताया है । औद्भिद-द्रव्य-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] पृथ्वी को फोड़कर उत्पन्न होनेवाला पदार्थ । वनस्पति और लता को औद्भिद द्रव्य कहते हैं । ये चार प्रकार के हैं । ( १ ) वनस्पति, ( २ ) वीरुध, ( ३ ) वानस्पत्य और ( ४ ) श्रोषधी । जिनमें केवल फल लगे उन्हें वनस्पति, जिनमें फूलफल दोनों लगें उन्हें वनस्पति, जो फल पकने पर सूख जावें, उनको श्रोषधी और फैलनेवाली लताओं को वीरुध कहते हैं । जड़, त्वचा, सार, गोंद ( निर्यास ), नाड़ी, रस, कोंपल (पल्लव), खार (क्षार), दूध (चीर ), फल, पुष्प, भस्म, तेल, काँटे, पत्र, शुग, कन्द और अंकुर यह सब श्रद्भिद द्रव्य के ग्रहणीय हैं । इनमें १६ प्रकार कधियों की जड़ ( मूल ), १६ प्रकार के शेष के फल, फूल, मूल त्वक् (छाल) और रसादि उपयोग में लिए जाते हैं । च० सू०
फल,
श्रनति
बच,
१० । मूल प्रधान द्रव्य ये हैं । नागदन्ती, काली निसोथ, रक्क निसोथ, विधारा, सातल', श्वेत अपराजिता, श्वेत बच, दन्ती, इन्द्रायन, मालकांगनी, कन्डूरी, शणपुधी, घंटारवा . ( झुननियाँ ), विषाणिका (मेदासींगी ), श्रजगन्धा, ती और तीरणी ।
फल प्रधान द्रव्य - शंखिनी, वायविडंग, पुष (खीरा), मदन फल ( मैनफल ), श्रानूपस्थलज, क्लीतक, प्रकीर्य, उदकीर्य, प्रत्यक्पुथ्वी,
श्रभया, अन्तः कोटरपुष्पी, हस्तिपर्ण, शारद, कम्पिल्ल ( कबीला ), अमलतास, कुड़ा धामार्गव, इक्ष्वाकु, जीमृत ( घवरबेल ) और कृतबेधन
च० सू० १ श्र० ।
श्रद्धय लवण -संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] एक प्रकार
का नमक जो भूगर्भ से आपसे श्राप उत्पन्न होता है । पांशु लवण | सि. यो० ग्रह चि०चित्रगुड़िका । च० द० महाषट् पलघृत | गुण-क्षार युक्र, भारी, कटु, स्तिग्ध शीतल और वातनाशक है । भा० पू० १ भ० ६० व० | स्वजनक, सूक्ष्म, हलका और वायु का अनुलोमन करनेवाला है । म० द० व० २ | तीखा, उल्लेराजनक, खारा, कटु, तिक तथा कोष्ठबद्धता, अफरा और शूल का नाशक । राज० ।
औद्भिद्य-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] वृक्षादि की उत्पत्ति । पेड़ इत्यादि की पैदाइश ।
स- संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] पशु दुग्ध । चौपायों का दूध |
स्य - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] पशु दुग्ध । औन [अ०] एक यूनानी तौल । श्रे क्रियः=२॥ तोला | श्रनति - संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] घोड़े का एक रोग |
यह गुरु भोजन, श्रमिन्द्रादि ग्रास ग्रहण और श्रश्व सम्बन्धी उपयुक्त सेवाओं के अभाव से स्वस्थानच्युत शुक्र मेहन ( लिंग ) में मारा जाता है। उससे मूत्रकृच्छ उत्पन्न होता है । पुनः कुपित रक्तमेहन में शूल उत्पन्न कर देता है । मेहन जिन्न, पक कण्डवत् पिड़िकायुक्त तथा मक्षिकावृत रहता है और अपने स्थान में प्रवेश नहीं करता ( जयदत्त ) ।