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________________ कलौंजी कलौंजी का तेल । मतानुसार कलौंजी के तेल में ज़ैतून का तेल मिलाकर पीने से साध्य नपुंसक व्यक्ति में भी प्रचंड काम शक्रि जागृति हो उठती है । कटि एवं जननेन्द्रिय पर कलौंजी तेल का अभ्यंग करने से असीम कामेच्छा उत्पन्न होती है। इसके मर्दन से नाड़ी शैथिल्य अर्थात् पुट्ठों की शिथिलता और शीत जन्य शूल का निवारण होता है । इसके पीने से भी सरदी का दर्द दूर होता । गोलानी के शक्ति में यह तेल मूली के तेल के समकक्ष होता है । इसके अभ्यंग एवं पान से फ़ालिज, अवसशता, कंप और धनुष टंकार ( कुज़ाज़ ) आराम होते हैं । यह रूह हैवानी - प्राण शक्ति को सुदूरवर्त्ती अंगों की ओर संचारित करता है । यह नाड्यवरोधों का उद्घाटन करता है। जिससे चेष्टा का अनुभव होता है । यह अंगों में रूक्षता उत्पन्न करता है । कान में इसे टपकाने से वाधिर्य दूर होता है और कर्णशोथ मिटता है। इसका नस्य लेने से मृगी रोग आराम होता है। इसके शिरोऽभ्यंग से लघुमस्तिष्क (मुवान्व़िर दिमाग़ ) के अवरोधों का उद्घाटन होता है तथा विस्मृति एवं स्मरण शक्ति के दोष दूर होते हैं । (ख़० ० ) नव्य मत ऐन्सली - देशी लोग वातानुलोमक ( Car. minative) रूप से अजीर्ण रोगों में कतिपय २३३१ रोगों में इसका व्यवहार करते हैं, तथा चर्म विस्फोटकों (Eruption ) पर इसके atait at faa aa (Gingilie oil) # मिलाकर लगाते हैं । कढ़ी प्रभृति भोज्य द्रव्यों को छौंकने - बघारने में भी इसका उपयोग होता है । लोगों का यह विश्वास है कि इसे कपड़ों (Linen ) के भीतर रखने से कीड़े नहीं लगते हैं । (मे० इं० पृ० १२८ ) । डीमक - कलौंजी के बीजों का मसाला और श्रौषध में बहुल 'प्रयोग होता है । श्रजीर्ण में अन्य सुगंध द्रव्यों तथा चित्रकमूल के साथ इसका व्यवहार होता है। डाक्टर एम० कैनोल्ली (Canolle ) के अनुसार १० से ४० ग्राम की मात्रा में इसके बीजों का चूर्ण खिजाने से अभिवर्द्धित कलौंजी तापक्रम एवं नाड़ी की गती प्रत्यक्ष देखी गई, तथा इससे सर्व शरीरगत, विशेषतः वृक्क एवं स्वगीय tara श्रभिवर्द्धित होगये । १० से २० ग्राम की मात्रा में कष्टरज श्रनियमित रज प्रभृति मासिक स्राव संबंधी विकारों में इसका व्यक्त श्रार्त्तवरजः स्रावकारी प्रभाव देखा जाता है । ( फा० इं० १ भ० पृ० २८-२६) अर० एन० खोरी - कलौंजी कृमिघ्न, सूत्रकर, स्तन्यवर्द्धक, अतिरजःस्रावकारी एवं बायु नाशक ( Carminative ) है । यह विरेचक एवं तिक भेषज सुगंधि करणार्थ व्यवहार में श्राती है। प्रसवोत्तर इसका काढ़ा पीने से गर्भाशय द्वार संकोच प्राप्त एवं स्तन्यवर्द्धित होता है । कृमियों के पक्ष में भी यह हितकारी है । विषम र, ग्रहणी ( Dyspepsia ) अग्निमांच और अतिसार में यह वायुनाशक तथा पाचक ( Stomachic ) रूप से चित्रकमूल के साथ व्यवहृत होती है। श्रार्त्तवरजः स्त्रावकारी रूप से यह रजः कृच्छ्र, रजोरोध वा विलम्वित रज में सेव्य है । श्रति मात्रा में सेवन करने से गर्भ स्राव कराती है । हस्त पाद के कष्ट प्रद शोध में जलपिष्ट कलौंजी का प्रलेप हितकारी होता है । पश्मीने के कपड़ों और दुशालों को कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिए उनकी तहोंमें कलौंजी के दाने जगह-जगह छिड़क कर रखते हैं । ( मे० मे० आफ १०२ भ० पृ० १७ ) नगेन्द्रनाथ सेन - कलौंजी के बीज सुगंधित वायुनाशक जठराग्निदीपक ( Stomachic ) और पाचक है तथा ये विरेचक एवं अन्य औषधों में तद्दर्पनिवारणार्थ पड़ते हैं। ये मूत्रल, कृमिघ्न तथा श्रार्त्तवरजःस्रावकारी और अजीर्ण, मंदाग्नि; ज्वर, अतिसार, शोथ, ( Dropsy ) प्रसूत रोग, प्रभृति में उपकारी है, ये संदेह रहित स्वन्यप्रद हैं । श्रतएव सद्यः प्रसूता नारियों को कतिपय अन्य औषधियों के साथ इन्हें देते हैं । इनका उत्तम व्यक्र श्रार्त्तवरजः स्रावकारी प्रभाव होता है श्रतः ये कृच्छरज में ५ से १० रत्ती की मात्रा में उपकारी होते हैं। अधिक मात्रा में ये गर्भपातक होते हैं । ऊनी कपड़ों और शाल दुशालों की मोड़ों में इन्हें यत्र-तत्र छिड़क देने से उनमें कीड़े
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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