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कलौंजी
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कलोजी
जाते हैं। इसका यह विशेष धर्म है कि इसके पेड़ को पानी में डालनेसे मछलियाँ उसके सन्निकट पाने के लिये पानी के ऊपर आ जाती हैं | कलौंजी के दाने ऊन के कपड़े में रखने से कीड़े नहीं लगते । यदि इसे जैतून के तेल के साथ निहार मुँह खाया करें, तो रंग सुर्ख निकल आये । इसको भूनकर कपड़े में बाँधकर सूंघने से सर्दी का जुकाम जाता रहता है । ग़ाज़रूनी इसको प्रतिश्याय में विशेष उपकारी लिखते हैं । उसका यह प्रभावज गुण है। वह प्रतिश्याय जिसमें छींक अधिक पाती हों और नाक से पानी बहता हो, जैतून के तेल में कलौंजी का चूर्ण मिलाकर चार बूंद नाक में टपकाने से उपकार होता है।
इसकी धूनी लेने से भी उक्त लाभ होता है। गीलानी कहते हैं कि इसकी यह खासियत (प्रभाव) है कि यह उन डकारोंको बंद करती हैं जो कफ एवं वायु जन्य होते हैं। इसके खाने से अम्लोद्गार रुक जाते हैं। इसके दीर्घकालीन उपयोग से स्त्री-स्तन्य की वृद्धि हो जाती है। इसके चर्बण-भक्षण से मुख में सुगंधि आने लगती है। इसके अधिक मात्रा में सेवन से खुनाक़ निकल पाता है और मूर्छा आने लगती है। कै कराना, दुग्धादि पिलाना और छिकिका (कुंदश) भर णज विष निवारणोपयोगी उपायों द्वारा इसका प्रतीकार करें। कलौंजी को सिरके में भिगो सुखाकर पीस लेवें। इसमें से ७ माशे प्रति दिन तीन दिन तक खाने से जलसंत्रास (श्वानविष) रोग दूर होता है । (ख. प्र.) वैद्यों के कथनानुसार कलौंजी चरपरी और उष्ण है। यह भामाशय एवं उदरज वायु शूल, अजीर्ण, पाचन नैर्बल्य, ज्वर और अतिसार का निवारण करती है। इसके उपयोग से स्त्री-स्तन्य की वृद्धि होती है। यह फोड़ों को पकाती और साफ़ करती एवं मूत्र की वृद्धि करती है । यह सर्दी के विकारों को दूर करती है । इसके उपयोग से कीड़े मरते हैं। ५ रत्ती से २॥ माशे तक कलौंजी के चूर्ण की फकी लेने से शारीरोष्मा एवं नाड़ी की गति तीव्र होती है और शरीर के प्राभ्यंतरिक सकल अंगों के अवरोध दूर होते हैं । ५ रत्ती से । माशे तक कलौंजी के चूर्ण की फंकी देने से कृच्छ एवं
कष्ट रज में उपकार होता है। गर्भवती स्त्री को । इसका सेवन वर्जित है। यह बल्य ओषधियों में परिगणित होती है और सारक औषधों के साथ दी जाती है। स्त्री-स्तन्य-शोधनार्थ कढ़ी वा तरकारी के साथ कलौंजी देना चाहिये । ऊनी कपड़ों में कपूर और कलौंजी पीसकर रखने से उनमें कीड़े नहीं लगते । कलौंजी ५ तोले, बकुची १ तोले गूगुल ५ तोले, दारुहलदी की जड़ ५ तोले, गंधक २॥ तोले, नारियल वा खोपरे का तेल दो बोतल, सर्व प्रथम कलौंजी से गंधक पर्यंत सकल द्रव्यों को बारीक पीसकर तेल में मिलाकर बोतलों में भरकर काग लगाकर सप्ताह पर्यंत धूप में रखें। दिन में दो-तीन बार खूब हिला दिया करें। शरीर पर इस तेल को मर्दन करने से कुष्ठ प्रभृति धर्मरोग प्राशम होते हैं। ३ माशे कलौंजी का चूर्ण ३ माशे मधु में मिलाकर चाटने से हिचकी बंद होती है । इसका काढ़ा पिलाने से कामला रोग का नाश होता है । इसको जल में पीसकर बालों में मलने से केश बढ़ने लगते हैं और उसका गिरना रुक जाता है । कलौंजी और एलुए की वत्ती बनाकर गुदा में धारण करने से चुन्ने वा सूत्र कृमि मृत प्राय होते हैं | कलौंजी और स्याह जीरे का प्रलेप करने से शीत जन्य शिरःशूल मिटता है। कलौंजी का एक तोला चूर्ण शहद के साथ बारी के दिन चटाने से चातुर्थिक ज्वर दूर होता है। इसे शहद में मिलाकर लगाने से वानर का विष उतरता है । इसको गुड़ में मिलाकर खाने से एकतरा ज्वर छूटता है। भुजी हुई कलौंजी दो माशे, नौसादर २ मा०. सोंठ मा०-इनको पीसकर पोटली बाँधकर सूंघने से प्रतिश्याय नष्ट होता है । इसका हलुआ बनाकर खिलाने से जलसंत्रास (कुक्कुर विष) रोग आराम होता है । इसके हलुए से उदरज वायुशूल, उदरज कृमि, उदराध्मान और कफज रोग आराम होते हैं । इसका चूर्ण फंकाने से मूत्रावरोध मिटता है। इसको सिरका में पीसकर रात्रि में मुंह पर लेप करने
और प्रातःकाल धो डालने से यौवन-पिड़का वा मुंहासे मिटते हैं । इसी के लेप से चर्मगत चट्टे नष्ट होते हैं।