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कर्णाट
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कणोमोट-संज्ञा पु ं [सं०पु० ] कए प्रकार का पेड़ । काणागाछ ( बं० ) । चक्र० । कर्णारा-संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ स्त्री॰ ] कर्णवेधनी | कान छेदने की सलाई । त्रिका० । कर्णारि - संज्ञा स्त्री० [सं० पुं० ] कोह ( २ ) नदी कर्णावु 'द-संज्ञा पु ं०
( १ ) श्रजुन । वृक्ष | रा० नि० व० ६ । [सं० पु० ] एक प्रकार का रोग जो कर्णस्त्रोत में होता है । कान का अदि । मा० नि० | वा० उ० १७ श्र० ।
गुण - कडुश्रा, कलेला, मीठा, ठंडा, मुख विशदता कारक, हलका, प्यास बुझानेवाला, कफ़ और रक्त पित्त नाशक है। भा० पू० १भ० । वि० दे० " कमल" । ( १२ ) मेदासींगी । (१३) काकोली । ( १४ ) यूथिका । जूही । (१५) तरणी । रामतरणी । गन्धाढ्या । रा०नि० ० ५ । ( १६ ) शुष्क गोधूम - चूर्ण | रा० नि० परिशि० ।
कर्णा - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कान में मस्सा होने का रोग | कान का बवासीर । यथा
'कण शोधावु दाशांसि जानीयादुक्तलक्षणः । " वर्णिकार, कर्णिकारक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ )
मा० नि० ।
कनियार वा कनकचंपा का पेड़ । (Pterospermum acerifolium, Willd.)
पर्थ्या० - दुमोत्पल, परिव्याध, वृक्षोत्पल-सं०। (२) एक प्रकार का अमलतास जिसका पेड़ बड़ा होता है । इसमें भी अमलतास ही की तरह की लंबी लंबी फलियाँ लगती हैं जिनके गूदे का जुलाब दिया जाता है। छोटा श्रमलतास ।
व.
कर्णि-संज्ञा स्त्री० [सं०पु ं० ] दे० " कर्णिकार” | 'कि-संज्ञा पु [सं० पु० ] ( १ ) गनियारी | गणिकारिका । श्रथ । छोटी अरनी । ( २ ) कमल का छत्ता । पद्मकोष । ( ३ ) सन्निपात ज्वर का एक भेद । कर्णक सन्निपात | भा० म० १ भ० | दे० " कर्णक" ।
'कणिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) दारुण पीड़ा । वा० उ० ३८ ० । ( २ ) धरनी ( बड़ी ) का पेड़ | महाग्निमंथ वृत्त । श्रथ । रा०. निव० ६ । वै० निघ० २भ० कासरोग रुद्रपर्पटी । । ( ३ ) हाथी के सूंड़ की नोक । ( ४ ) हाथ की बिचली उँगली | करमध्याङ्गुली | हे० च० । (५) डंठल जिसमें फल लगा रहता है । बोंटा । ०त्रिक । (६) पद्मिनी नाल | कमल की डंडी | मृणाल | हे० च० । ( ७ ) एक योनिरोग जिसमें योनि के कमल के चारों ओर कँगनी के अंकुर से निकल श्राते हैं । योनिरो० ।
भा० म० ४ भ०
कर्णिकार, कर्णिकारक
( १० ) कँवलगट्टा | वोज मातृका । ( ११ ) कमल का छत्ता जिसमें कँवल गट्टे निकलते हैं । वीज कोष । यथा - " वीज कोषस्तु कर्णिका" हारा०
लक्षणकर्णिन्या कर्णिका योनौ श्लेष्मा सृग्भ्याञ्च जायते । मा० नि० । चरक के मतानुसार, प्रसव से पूर्व ) "बेसमय जोर से काँखने से गर्भ के द्वारा वायु रुककर श्लेष्मा तथा रक्त में मिल जाता है, जिससे यह रोग होता है । (८) खड़िया ] मिट्टी ) । सेलखरी । कठिनी । ( 8 ) सेवती । सफ़ेद गुलाब । शतपत्री ।
क्षुद्र स्वर्णालुका वृक्ष | छोटा सोनालू | लघु वाहवा (मरा० ) । किंरुगक्के ( ते ० ) ।
पर्या० - राजतरु, प्रग्रह. कृतमालक, सुफल, चक्र, परिव्याध, व्याधिरिपु, पित्तबीजक, लध्वारग्वध ।
गुण—वैद्यक में यह सारक, कड़ ु श्रा, चरपरा और गरम तथा कफ, शूल, उदररोग, कृमि, प्रमेह, व्रण और गुल्म को दूर करनेवाला माना जाता है 1 रा०जि० ० ६ । नि०र० । ( ३ ) एक प्रकार hot वृक्ष जिसकी पत्ती ढाक की पत्ती की तरह और फल लाल और अत्यन्त मनोहर होते हैं। इसके वृक्ष वन और पर्वतोंपर अधिक होते हैं! परिव्याधः, पादपोत्पलः, कर्णिकार, द्र ुमोत्पल । उलटकंबल । गुण - कड़ा, चरपरा, हलका, शोधन, कसेला, रञ्जन और सुखद तथा सूजन, कफ, रक्त विकार, व्रण और कोढ़ को दूर... करनेवाला है । रा०नि० ० ॥ भा० । (४) स्थलपद्म स्थल कमल । २० म० ।: (१) डहुक । डहुआ । रहना । (६५). कनेर । (, ७) गणेरुका | गण कारिका । कीर्ण |