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________________ क़तरमा तरमा - [ यू० ] तुरंज । विजौरा नीबू | तरोस, कंतरीस - [ यू० ] तेलनी मक्खी । ज़रारीह । ( Cantharis ) २४२७ [अ०] ] चूहा । तुवा सलवा - [ यू० ] बड़ा सनोबर | कँतुस - [ यू० ] ( १ ) विलायती मेंहदी । श्रास । ( २ ) खुमी । कंता अनूरीन - [ रू०] कंता - [ रू० ] ( १ ) थु । सर्म | सालम मिश्री । दम्मुल् श्रख़्वेन । (२) तार - [अ०] (ऊर मितर । ( २ ) ऊद क्रमारी । ऊहुल्ब ुर । (३) एक प्रकार की माप । कंतारीक़ा - [ यू० ] उस्कूलूकंदयून | महापान । - कंतारीदास - [ यू० ] तेलनी मक्खी । ज़रारीह 1 ( Cantharis ) कंतारीन - [ यू०] क्रराश का पेड़ । असल । क़तारीना - [ यू० ] उस्क्रूलूक्रं दयून | महापान । कंतारू - [ कना० ] कन्थारी । कंतु वरस - [ रू०, तु० ] तुम कड़ । बरें । कुसुम का बीया । क्रुतु. | क्रंतीदा - [ यू०] अफीम । श्रहिफेन | कंतु किलंग - [ ता० ] मौचालु | कंतू - [ ? ] रेंड़ | एरंड | कंतु अस्लेवा - [ यू० ] बड़ा सनोबर | क़त इदस-[ यू० ] छोटे सनोबर का बीया । कंतूरियून - संज्ञा स्त्री० [ रू०, यू० । मुश्रु० जंतूरियः ( रूमी ) ] एक प्रकार का पौधा जो क्षुद्र तथा वृहद् भेद से दो प्रकार का होता है । ( Dianthus anatolicus, Boiss. नोट- यह जंतूरियः रूमी शब्द से श्रारव्यकृत शब्द है, जिसका संकेत रूमी हकीम 'जंतूरिस' से है, जिसने सर्व प्रथम उक्त श्रोषध का पता लगाया था। कंतूरियून कबीर - संज्ञा स्त्री० [ रूमी या यू० ] एक पौधा जिसका तना काहू किसी-किसी के मत से हुम्माज के तने की तरह होता है जो दो-तीन हाथ ( मतांतर से ३ गज ) तक लंबा जाता है। इसी कारण इसे कंतुरियून का बड़ा भेद माना है । इसकी एक ही जड़ से, बहुसंख्यक शाखाएँ निकलती हैं। उनके शिखर खाखस शिखरवत् होते कंतूरियून कबीर हैं । जो गोल और किसी प्रकार लंबे होते हैं । इसका फूल सुरमई रंग का ओर गोल होता है । जिसके भीतर रुई की तरह कोई चीज़ होती है । शाखों के सिरे पर फल होते हैं। पोस्ते की तेंद की तरह भीतर बीज होते हैं। जिनकी श्राकृति कड़ के दानों की तरह श्रोर स्वाद चरपरा होता है । इसके पत्र अखरोट पत्रवत् — किसी-किसी के मत से गर्जर पत्रवत् करमकल्ला के पत्तों के समान हरे, पत्रप्रांत श्रारे की तरह दंदानेदार होते हैं। इसकी जड़ मोटी, कड़ी, २ हाथ ( दो गज़ ) लंबी और एक प्रकार के सुर्ख रक्कमय द्रव से परिपूर्ण रहती है । इसका स्वरस रक्त के समान होता है। इसका स्वाद किंचित् कषाय एवं मधुरता लिये चरपरा होता है । लूफाये कबीर | प्राप्ति-स्थान - पश्चिम तिब्बत से श्रार्मीनिया तक । गुणधर्म तथा प्रयोग— प्रकृति - द्वितीय वा तृतीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष । हानिकर्त्ता - मस्तिष्क को । दर्पन — मधु शर्करा, मिश्री प्रभृति । ( मतांतर से समा रबी तथा कतीरा ) प्रतिनिधि - नागरमोथा और सुरंजान रसवत और कंतूरियून सगीर । मात्रा- ७ माशे तक । किसी-किसी के मत से ६ माशे तक । प्रधान गुण - रजः प्रवर्त्तक, प्राशु प्रसदकारी श्रोर मस्तिष्क शोधक है । गुण, कर्म, प्रयोग 1 कंतूरियून कबीर के स्वाद में चरपराहट एवं तीच्णता होती है श्रोर इसमें किंचित् मिठास के साथ कषायपन भी होता है । अस्तु, इसमें बिना स्वच्छता, संकोच, क्षोभ, और तीक्ष्णता के तज्फ्री पाई जाती है । किसी-किसी का कथन है कि जब इसको कूटकर कटे हुये मांस के साथ पकाया जाता है, तो यह उसको जोड़ देती है यह मूत्र एवं श्रार्त्तव का प्रवर्त्तन भी करती है I उदरस्थ शिशु को खराव कर देती है । मृत शिशु को गर्भाशय से निःसरित करती है, जिसका कारण इसकी तीक्ष्णता, चरपराहट और कुब्बत हरारत है । अपने संग्राही गुण के कारण यह दतों को परिपूरित करती और रक्त निष्ठीवन को लाभ पहुँचाती है। यह पेशियों के टूटने फूटने, दमा और
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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