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________________ कहरुवा आगपर रखने से रोगन बलसां के सदृश एक प्रकारका रोगन ( तेल ) टपकता है । साहब जामा का कथन है कि जिन लोगों ने जालीनूस और दीसकूरीदूस के ग्रन्थों का यूनानी भाषा से आरव्य भाषा में उल्था किया था, उन्होंने कहear को हौर का गोंद समझने में भूल की है । क्योंकि जालीनूस ने हौर के प्रसंग में लिखा है" इसका फूल अत्यन्त बलशाली और तृतीय कक्षा में उष्ण है, इसका गोंद फूल की अपेक्षा भी अधिक उष्ण और क़वी है ।" परन्तु कहरुबा इस कदर गरम कोई चीज नहीं है । दीसकूरीदूस का कथन है- "हौर का गोंद तोड़ने वा हाथ से मलने से सुगन्धि श्राती है" किन्तु कहरुबा में सुगन्ध का सर्वथा अभाव होता है अस्तु, उक्त कथनद्वय से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि कहरुवा हौज का गोंद नहीं, क्यों कि कहरुवा में वे गुण कहाँ, जो हौज के गोंद के सम्बन्ध में वर्णित हुए हैं । श्रर्थात् करुवा में न उक्त शक्ति एवं उष्णता ही है और न वह सुगन्धि | गाफिकी के अनुसार करुवा दो प्रकार का होता है । एक वह जो रोम देश श्रोर पूर्वीय प्रदेशों से धाता हैं और दूसरा जो स्पेन के नदी- कूलस्थित पश्चिमीय नगरों से प्राप्त होता है की जड़ के समीप से, जिसे प्राप्त होता है । । यह एक वृक्ष 'दोम कहते हैं, अर्थात् उनके मत से यह एक रतूवत है जो दोम ( गूगुल मक्की ) नामक पेड़ से मधु की तरह टपकती है और फिर जम जाती है। उक्त वर्णन के उपरांत साहब जामा अपने स्वकीय श्रन्वेषण के आधार पर लिखते हैं कि जब दोम का वृत्त जमीन से फूटता है, तब उसके पत्ते से एक प्रकार कीरतूत टपकती है जो जमने से पूर्व शहद की तरह होती है और तदुपरांत उक्त आकार ग्रहण कर लेती है। जब उस ( कहरुबा ) को तोड़ते हैं तो भीतर से मक्खियाँ, कंकरियाँ और तृण इत्यादि पदार्थ निकलते हैं जो उसके टपकने की जगह संयोगवश वर्तमान होते हैं और उसमें मिल जाते हैं । इससे ज्ञात हुआ कि कहरुबा गोंद नहीं, अपितु रस है । उक्त कथन की सत्यता तो केवल एक इसी बात से सिद्ध हो जाती है कि 1 २४०० में कहरुवा 'दोम' जिसे हिन्दी में गूगल का पेड़ कहते हैं और जो भारतवर्ष में बहुतायत से होता है उसके पत्तों में सेकहरुबा के सहरा किसी रतूत के टपकने के प्रमाण न देखने में आये हैं और न सुनने में । इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में इसी प्रकार के कतिपय और वर्णन ये हैं- कोई कोई कहते हैं कि पश्चिम के द्वीपों में से यह एक सोते का पानी है जो जमकर ऐसा हो जाता है। किसी किसी के मत के अनुसार यह एक प्रकार का मुहरां हैं जो पश्चिम की नदियों से निकलता है । परन्तु 'उक्त सभी कथन निराधार एवं भ्रमात्मक हैं । गंज बादावर्द में लिखा है कि किसी किस्म का कहरुवा पीताभ रक्तवर्ण का होता है श्रोर कोई कोई लाभ पीत वा श्वेताभ पीत होता है। इसकी शुद्धाशुद्धि को पहिचान, इस प्रकार हैइसको वस्त्र पर यहां तक रगड़े कि, यह गरम हो जाय । फिर इसे तृण के समीप ले श्रायें | यदि यह उसे उठा ले; तो शुद्ध श्रन्यथा अशुद्ध । इसमें प्रायः संदरूस की मिलावट करते हैं । ( संदरूस वह सरल निर्यास है, जिसे देश में "चन्द्रस" कहते हैं -- लेखक ) पहिचान यह है कि संदरूस की भग्न सतह चमकदार होती | प्राचीन विद्वानों के बचनों से यह प्रगट होता है कि कहरुबा और संदरूस दोनों एक ही जाति की चीजें हैं । इन दोनों में सूक्ष्म भेद इस प्रकार हैं— संदरूस के हाथ में अल्प मर्दन से ही जो थोड़ी गरमी प्रादुर्भूत होती है, उससे वह चुम्बक की तरह तृण को अपनी ओर श्राकुष्ट कर लेता है, इसके विपरीत करुवा को अत्यधिक घर्षण की श्रावश्य कता होती है । ( २ ) संदरूस कोमल होता है, - परन्तु कहरुवा कठोर होता है । ( ३ ) कहरुबा नींबू के रस की सी सुगंधि आती है; पर संदरूस में उक्त सुगन्धि का अभाव होता है । ( ४ ) संदरूस के रंग में रक वर्ण का प्राबल्य होता है; परन्तु कहरुवा के रंग में पीत वर्ण प्रधान होता है । (५) संदरूस को जलाने से हींग की सी दुर्गन्धि श्राती है; परन्तु कहरुबा को जलाने से उसमें से मस्तगी की महक श्राती है। 2
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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