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________________ 'कनियारी और कफ, वात, कृमि, वस्तिशूल, त्रिष और कोद, वासीर, कडू ( खुजली ), व्रण, सूजन, शोष, शूल, शुष्कगर्भ और गर्भ को दूर करनेवाली है । वैद्यक में लाङ्गली के व्यवहार २३२८ वाग्भट्ट - ( १ ) उन्मन्थ नामक कर्णरोग पर लाङ्गली - सुरसा (तुलसी) और लाङ्गली इन दोनों के कल्क के योग से सिद्ध किये हुये तेल का नस्य । यह उन्मन्थ रोग में दृष्टफल है। यथासुरसा लाङ्गलीभ्यान सिद्धं तीक्ष्णश्वनावनम् । ( उ०१८ श्र० ) ( २ इन्द्रलुप्त में लाङ्गली - गंज रोग में करियारी का प्रलेप उपयोगी है । यथा“इन्द्रलुप्ते प्रलेपयेत् । तथा लाङ्गलिका मूलैः " ( उ० २४ श्र० ) ( ३ ) रसायनार्थ लाङ्गली - लाङ्गली कंद और त्रिफला जाति लौह ये सब मिले हुये ५० पल अर्थात् मिश्रित ४०० तोले लेकर भँगरैये के स्वरसमें पीसकर ३६० वटिकायें प्रस्तुत कर छाया में सुखा लें। पहले श्राधी गोली फिर क्रमशः बढ़ाते हुये पूरी १ गोली सेवन करें। इससे विरेचन होने पर क्रमशः मंड, पेया, विलेपी और मांस रस का पथ्य दे, इस प्रकार मास पर्यन्त संयतात्मा होकर घृत सहित स्निग्ध श्रन्न का भोजन करें। इसके उपरांत इच्छानुसार खान-पान करें । श्रजीर्ण न हो केवल इस ओर तीच्णदृष्टि रखें, और अजीर्ण जनक द्रव्य वा श्रजीर्ण भोजन से सदा परहेज़ करें, इस तरह वर्ष भर में समग्र गोलियाँ खा जायँ । इन गोलियों का सेवन करने वाला मनुष्य असाध्य रोग से श्राक्रान्त होने पर भी पुरुषार्थकारी और युवा की भाँति गठीली देह वाला एवं आँख कान से युक्त होकर पांच सौ वर्ष तक जीता है । यथा "लाङ्गली त्रिफला लोहपल पञ्चाशतीकृतम्। मार्क स्वर से षष्ट्या गुटिकानां शतत्रयम् ॥ छाया विशुष्कं गुटिकार्द्ध मद्यात् । पू समस्तामपि तां क्रमेण ॥ भजेद्विरिक्तः क्रमश मण्डम् । पेयां विलेपीं रसकौदनञ्च ॥ सर्पिः स्निग्धं मासमेकं यतात्मा । मासादूर्ध्वं सर्वथा 1 कलिया स्वैरवृत्तिः वर्ज्यं यत्नात् सर्व्वकालं त्वजी* वर्षेणैव योगमेवोपयुञ्ज्यात् ॥ भवति विगत शेगो योऽप्य साध्यामंयार्त्तः । प्रबल पुरुषकारः शोभते योऽपि वृद्धः ॥ उपचित पृथु गात्रः श्रोत्र नेत्रादियुक्तम् । तरुण इव समानां पश्न जीवे - च्छतानि ॥ ( उ० ३६ अ० ) चक्रदत्त - ( १ ) गण्डमाला में लाङ्गलीसंभालू के स्वरस और कलिहारी के कल्क के योग से यथाविधि तैल सिद्ध कर नस्य लेने से गण्डमाला प्रशमित होता है । यथा " निगु डीस्वरसेनाथ लाङ्गलीमूल कल्कितम् । तैलं नस्यान्निहन्त्याशु गण्डमालां सुदारुणाम् ॥ ( गलगण्ड - चि०) ( २ ) पक्वशोथ प्रभेदने लाङ्गली मंगली को पीसकर प्रलेप करने से पका फोड़ा फट जाता है । यथा"चिरवित्वाग्निकौ दारणः परः । " (व्रणशोथ - चि०) (३) नष्ट शल्य निर्हरणार्थ लाङ्गली - यदि शरीर में किसी जगह लौह पाषाणादि शल्य घुस जायँ, तो करियारी की जड़ पीसकर लेप करने से वे बाहर निकल जाते हैं। यथा “ नष्टशल्य' षिनिःसरेत् लाङ्गली मूल लेपाद्वा" । ( व्रणशोथ - चि० ). ( ४ ) रुके हुये गर्भ को शीघ्रोत्पन्न करणार्थं कलिहारी मूल - कलिहारी की जड़ को धागा से प्रसूता स्त्री के हाथ पैरों में रुके हुये गर्भ को शीघ्र उत्पन्न होने के लिये बाँधना चाहिये । यथा“हिरण्यपुष्पी मूलंच पाणिपादेन धारयेत् । ( वा० शा ० अ० १) बध्नीयाद्धिरपुष्प मूलंच हस्तपादयोः । तन्तुना लांगलीमूलं बध्नीयाद्धस्तपादयोः ॥ ( सु० शा० ) भावप्रकाश श्रमरा पातनार्थ लांगली - प्रसवोत्तर यदि जेर न गिरे तो करियारी की जड़ पीस
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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