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कलम्बा
चपटे विषमतया वृत्ताकार या अंडाकार होते हैं, ये लगभग दो इञ्च व्यास के और 3 से 21⁄2 च तक या अधिक मोटे होते हैं। किनारों का भाग मोटा और रंग में भूरापन लिए पीला और कुरीदार, बीच का भाग रंग में हरापन लिये पीला होता है । मँहक काई की तरह ( Mossy ) और स्वाद अत्यन्त तिल होता है। ये सरलता पूर्वक चूर्ण हो जाते हैं। यह जड़ दवा के काम में श्राती है।
पर्य्याः- वृक्ष - जेटियो हाइज़ा कोलंबा Jartoorhiza Columba, Miers. Me - nispermnm Columba, Roxb. - जे० | कैलंबा Calumba - श्रं० | कोलोम्बो Colombo ni |
जड़ - कलंबा, कलंबा की जड़, कैलंबा की जड़, कलंबे की जड़, कलंब की जड़ - हिं०, द० । र युज् हमाम, साकुल हमाम - श्रु० । गाव 'मुशंग, देवमुशंग, बीने कलब: फ्रा० । कलंबा वेर - ता० । कलंबा वेरु - ते० । कलंबू-सिंह० । कलंब - ( मोजमूवीक) कलंब कचरी - बम्ब० | कैलंबो Calumbo, कैलंबो रूट Calumbo root-० । कोलंबा रूट Columba root कैलंबी रैडिक्स Calumboe Radix -ले० । कलस्तारियून - यु० । Raizdo Columba - ( पु० ) । कोलंबा - फ्रां० ।
टिप्पणी- उक्त औषधि की युनानी संज्ञा 'क्रलस्तारियून' है जिसे मुहीत आज़म प्रभृति युनानी द्रव्य-गुण विषयक ग्रंथों में भूल से फ़ारस्तारियून लिखा है । कपोत को उक्त वृक्ष पर वरना और निवास करना बहुत पसंद है । इसलिये इसकी श्रारब्य संज्ञा रइयुल हमाम श्रन्वर्थ ही है । मनजनु श्रदविया में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। डीमकोक्न श्रारब्य संज्ञा साकुल -इमाम ( Dove's foot ) भी अन्वर्थक ही है । दक्षिणी दार्वी ( कलंबक वा झाड़ की हलदी ) भी इसी जाति की एक सुदीर्घ लता है जिसकी जड़ दवा के काम में आती है । दारुहलदी में इसका मिश्रण भी करते हैं। कलम्बक संस्कृत संज्ञा के लिये यथा स्थान देखें ।
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कलम्बा
गुडूच्यादि वर्ग (N. O. Menispermacece.) उत्पत्ति-स्थान- श्रोइबो, मोजम्बीक ( अफरीका ) | औषधार्थं व्यवहार - जड़ ।
रासायनिक संघटन - (१) कोलम्बीन ( Columbia ) नामक एक व रहित स्फटिकीय तिक्कसार, (२) दावन Berberine धर्मी, कोलंबामीन ( Columbomine ) पालटीन ( Palmatine ) और जेटियो - रहाइजीन ( Jateorhizine ) संज्ञक पीत स्फटिकीय क्षारोद त्रय । ( ३ ) कोलंबिक एसिड ( Columbic acid ) ( ४ ) श्वेतसार और (५) लबाब (Mucilage ) इसमें कषायाम्ल ( Tannic acid ) का प्रभाव होता है।
मात्रा -५ से १५ रत्ती ( १०-३० प्रेन ) B. P.
इतिहास - अफरीका निवासियों को तो उक्त भोषधि प्राचीन काल से ज्ञात है । श्रतः बहुत अति प्राचीनकाल से ही वे इसे प्रवाहिका और 4 श्रांत्र सम्बन्धी अन्य रोगों में प्रयुक्त करते रहे हैं। परंतु यह प्रतीत होता है कि भारतवर्ष में इसका प्रवेश पुर्त्तगालवासियों द्वारा हुआ। पुर्तगालियों द्वारा सन् १६७१ ई० में यह औषधि युरूप में पहुँची, यह फ्लकीजर और हेनबेरी के अन्वेषणों से प्रतिपन्न होता है ।
उक्त काल के थोड़े समय बाद फ्रान्सिस्को रेडी ने इसके विषघ्न गुण का उल्लेख किया । तब से लेकर उस काल तक यह श्रोषधि एक प्रकार विस्मृत सी हो गई थी, जब तक कि यह सन् . १७७३ ई० में परसोवल द्वारा पुनः प्रेषित नहीं की गई। उस समय से साधारण बल्य श्रौषधि की भाँति रूप से यह अक्षुण्ण रूप से व्यवहार में श्रा रही है । भारतस्थित प्राचीनतर श्रग्ल चिकित्सकों को इसका परिज्ञान संभवतः पुर्तगालियों से हुआ । मदरास में उक्त श्रोषधि सन् १८०५ ई० में प्रविष्ट हुई और उसके उपरांत बंगाल और बम्बई में । परंतु अब यह सर्वथा विलुप्तप्राय हो गई है।