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कर्णरोग
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कर्णविटक uy कान का दर्द दूर होता है। शम्बूक तैल-घोंघे का गुण-यथोचित अनुपान से यह हर प्रकार के
जीव तेल में पकाकर कान में डालने से कान का ____ कर्ण रोगों को नष्ट करता है । र० र० स० २३ मासूर दूर होता है। करमकला के पत्तों का रस सिरका अथवा गन्दना के रस में मिलाकर गुनगुना कर्णल-वि० [सं० त्रि०] जो अच्छी तरह सुन सके । कर कान में टपकाने से कान में जमा हुआ रुधिर
____ कानवाला । प्रशस्त श्रवणशक्रिबिशिष्ट ।। घुलकर निकल जाता है । (११)पके हुये इंद्रा- | कर्णलतिका, कर्णलता-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री० ] यण के फल के छिलके मीठे तेल में पकाकर कान
(Lobe of the ear ) कान की लौ । में डालने से वधिरता नष्ट होता है। (१२)
कर्णपाली । हे० च०। पपड़ी खैर और ख़तमी पीसकर लेप करने से कर्णवत्-वि० [सं० वि०] (१) बड़े कानवाला । गर्मी से उत्पन्न कर्ण का कड़ापन दूर होता है। दोघंकर्णविशिष्ट । (२) कानवाला । कर्णयुक्त ।
कर्णरोग में डाक्टरी औषधियां-कर्णशूल | (३) कोमल शाखा वा कोलक विशिष्ट । (Otalgia) स्ट्याफिसेमाइ, केन्याराइटोज़, कर्णवंश-संज्ञा पुं० [सं० पु.] मंच । बाँस का डिजिटेलिस, आलियम् प्रालिप, प्रोपियम्, अस्पा- |
___ऊँचा ठाट | हारा। इटिस-एकोनाइट, Otorrhaea-एलम्,बोरिक
कर्णवर्जित-वि० [सं० त्रि०] () जिसे कान न एसिड, बोरो ग्लोसरीन, बाल्सम् पेरुविएनम्; क्या
___ हो। कर्णहीन । (२) बहरा । बधिर । डमियाई सलफास, श्राइडोफार्म, लाइकरसोडि
संज्ञा पुं॰ [सं० पु० ] साँप । सर्प । कोर्राट, प्लम्बाई एसिटास, आलियम् महुई, टैनिन ।
श. च०। ग्लीसरीन
ड्राम
कर्णवश-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार की बोरिक एसिड
१० ग्रेन
मछली जो वृत्ताकार गोल, कालेरंग की और प्रायढोफार्म
१ ग्रेन
सेहरेदार होती है। केम्फर
५ ग्रेन
__ गुण-इसका मांस दीपन पाचन, पथ्य, स्पिरिट-रेक्टिीफाइड
। औंस
बलकारक और पुष्टिकारक है । वैद्यकम् । थाइमोल
५ ग्रेन
| कर्णवर्द्धन-संज्ञा पुं॰ [सं०] कान का एक रोग। कर्णरोग प्रतिषेध-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] (1) कर्णवात-संज्ञा पु० [सं० पु.] अस्सी प्रकार के ___ कर्णरोग की चिकित्सा । (२) सुश्रुत-संहिता का
वातरोगों में से एक। ___एक अध्याय ।
कर्णवाते च वाधिर्य महाशूलेन पीड़नम् । कण रोग विज्ञान-संज्ञा पुं॰ [सं० को० ] कर्णगत |
अहो रात्रं च दु:खस्या देहशोषः प्रकीर्तितः।। व्याधि का निदान । कान के रोगों का निदान ।। कण राग हर रस-संज्ञा पु० [सं० पु.] ठक्क नाम
अर्थात्-इसमें बहिरापन कान में भयानक का रसौषध जो कर्णरोग में लाभदायक है।
व्यथा तथा पोड़ा और देह में शोष होता है।
कर्णवात हर तैल-संज्ञा पुं० [सं० की.] एक योग-हीरे की भस्म, वैक्रान्त भस्म, विमल
प्रकार का आयुर्वेदीय योग(रूपामाखी) भस्म, नीलाथोथा, सीसा भस्म,
शेफाम्लतिलकैरण्ड कुमारी कुलिमिश्रितैः । शुद्ध मीठा तेलिया, शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक और सोनामक्खी भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे
ततो निरुहो वातघ्न: कल्कस्नेहै निरुह्यते ॥ और गंधक की कजली करे, फिर अन्य औषधियाँ
कर्ण वातं निहन्त्याशु वाधिर्यं च विनाशयेत्। मिलाकर लहसुन, अदरख, सहिजन, अरनी की कणेविट्-संज्ञा [सं० स्त्री० ] कान का मैल । खूट । जड़ और केले के रस की पृथक ७-७ भावना कर्णमल । ( मनु०) देकर खूब घोटें।
| कर्णविटक-वि० [सं० त्रि० ] जिसकी कान में मैल मात्रा-२-३ रत्ती।
फा०६६
।
हो।