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तथा मैदानों और समुद्र के किनारे पर | होता है। कण्टकाधिक्य के कारण “दुष्पर्श" | होने से इसे लोग खेतों के बाढ़ पर भी रूधने के लिये लगाते हैं। इसके अतिरिक्त अखिल उष्ण देशों के समुद्र-तटों के समीप इसके झाड़ उपजते हैं। बंगदेश (राढ़ ) में नाटाकरंज के बीज को "कुदुलेबिचि" कहते हैं।
रासायनिक संघटन-पूर्व के प्राचार्यों ने इसके बोज दा गिरी में किसी न किसी परिणाम में, कोई न कोई अक्षारोदीय तिक सत्व की विद्य
मानता पाई, जिसका नाम किसी ने ग्विलैंडोन । ( Guilandin ), किसी ने बॉड्युसोन
( Bonducin) और किसी ने नेटोन (Natin) रक्खा । उक रासायनिक विश्लेषणों से प्राप्त विभिन्न परिणामों को दृष्टि में रखकर इस बात का शोध करने के लिये कि वस्तुतः इसमें कौन सा क्रियात्मक सार वर्तमान है। कलकत्ता के स्कूल श्राफ ट्रापिकल मेडिसिन में जो पुनः परी पण किये गये और उनसे जो निष्कर्ष प्राप्त हुये वे इस प्रकार हैं-उनसे पेट्रोलियम् ईथर में | १३-५२%, सल्फ्युरिक ईथर में १.८४%, कोरो. फार्म में ०.४२% और शुद्ध सुरासार में | १८.५५°/ तक शुष्क रसक्रिया (Extriact) प्राप्त हुई। उन सभी रसक्रियाओं की पृथक् पृथक् | रासायनिक परीक्षा की गई। परन्तु उनमें पूर्व के अन्वेषकों द्वारा वर्णित किसी भी प्रकार के क्षारोद की विद्यमानता की पुष्टि नहीं हो सकी। सुतराँ उसमें जल में अविलेय एक नॉननलुकोसाइडिक तिक सार को विद्यमानता निःसन्देह सिद्ध हुई
और वह भी द्रव्यगुण विज्ञानता की दृष्टि से ( Pharmacologically) क्रियाशून्य प्रमाणित हुई । बीजों में प्रचुर परिमाण में एक प्रकार का अप्रिय गंधि एवं पाँडु-पीत वर्ण का धन तैल होता है । इसमें प्रायोडीन और साबुन बनाने वाले घटक (Saponification) होते हैं, किसी-किसी के मत से एतद्भत तैल की मात्रा २० से २५ प्रतिशत के बीच घटती बढ़ती रहती है। परन्तु लेखक (कर्नल चोपड़ा) द्वारा परीक्षित नमूनों में इसकी मात्रा १४ प्रतिशत से अधिक कभी नहीं पाई गई।
औषधार्थ व्यवहार-बीज, बीजशस्य, मूल, वृक्षत्वक और पत्र ।
औषध-निर्माण-चूर्ण, तेल और अभ्यङ्ग इत्यादि । करंजारिष्ट, हब्बदाका बुखार, ( करावादीन इहसानी) इत्यादि।
गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारलताकरञ्जपत्रंतु कटूष्ण कफवातनुत् । तद्वीजं दीपनं पथ्यं शूलगुल्म व्यथापहम् ॥
(रा०नि० शाल्म०८०) लताकरंज के पत्ते चरपरे, गरम और कफवात नाशक होते हैं । इसके बीज दीपन और पथ्य है तथा शूल और गोले की पीड़ा को दूर करते हैं।
करञ्जिका-(काँटा करा) कण्टयुक्तः करञ्जस्तु पाके च तुवरः कटुः । ग्राहकश्चोष्णवीर्य: स्यात्तिक्तः प्रोक्तश्चमेहहा ॥ कुष्ठाभॊत्रणवातानां कृमीणां नाशनः परः । पुष्पं तु चोष्णवीर्यं स्यात्तिक्तं वातकफापहम् ॥
(वै० निघ०) ___कंजा पाक में चरपरा, कसेला, प्राही, मलरोधक, उष्णवीर्य तथा कड़वा है और यह प्रमेह कोढ़, बबासोर, व्रण, वायु तथा कृमिनाशक है। इसके फूल उष्णवीर्य, कड़वे, वात और कफ नाशक है।
पूतिकरञ्ज
पूतिकञ्जकः प्रोक्तो गुच्छपूर्व करंजवत् ॥
(नि०२०) पूति करंजके गुण गुच्छ करंज के समान है। पूतिकरंजजं पत्रं लघु वात कफापहम् । भेदनं कटुकं पाके वीर्योष्णं शोफनाशनम्।।
पूतिकरंज की पत्ती-हलकी, वातकफनाशक, दस्तावर, पाक में चरपरी, उष्ण वीर्य और सूजन उतारने वाली है। शोफनमुष्ण वीर्यन्तु पत्रं पूति करजम् ।
(सु० सू.) पूतिकरंज की पत्ती-उष्ण वोर्य भार सूजन उतारने वाली है।