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कुदरू
के अनुसार इसका फल बुद्धिनाशक और स्तन्यवर्द्धक है । तथा जड़ वीर्य जनक शीतल श्रौर प्रमेह नाशक है। मदनपाल के अनुसार भ्रान्तिहर और गणनिघण्टु के अनुसार वमनहारक है ।
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युनानी मतानुसार
प्रकृति - पत्र शीतल और रूद; फल शीतल श्रर तर हैं ।
हानिकर्त्ता - कुँ दरू (फल) संग्राही (काबिज़ ), श्राध्मानकारक और आमाशय को निर्बल करता है। मूल स्वरस उत्क्लेशकारक, वामक और तीव्र विरेचक है और इससे श्रंगों में दाह होने लगता है ।
दर्पन — विबंध, श्राध्मान और श्रामाशय नैर्बल्य वा मंदाग्नि के लिये उष्ण श्रौषधियाँ और जड़ के लिये बिहीदाने का लबाब एवं इसबगोल और बारतंग का लबाब दर्प निवारक श्रोषधिद्रव्य है ।
प्रतिनिधि - लौकी वा परवल ।
मात्रा - आवश्यकतानुसार ।
गुए, कर्म, प्रयोग - ( फल ) पित्त और रक्त विकार तथा दाह को मिटाती है। यह वमनकारक दोष संशोधक, मेदनाशक, स्थौल्यहर, संग्राही, विबंधकारक श्राध्मानकारक, वातकारक और स्तम्भनकर्त्ता है। जड़ शीतल, कफनाशक और विष प्रभाव नाशक है। लेखक के निकट यह शीतल एवं तर है और कोष्ठ को मृदु कर्त्ता एवं श्रामाशय को निर्बल करती है। इसका अचार ( गरम चीजों के साथ ) कुब्बत जाज़िबा ( श्रभिशोषण शक्ति ) बल प्रदान करता है और पाचन शक्ति को बढ़ाता है । ( ता० श० ), यह वृक्करोगों को लाभकारी है ! (ख़० प्र०), इसकी जड़ स्तंभन कर्त्ता है । (म० मु० )
यह सर्द तरकारी है और पित्त एवं रुधिर प्रकोप, और ऊष्मा तथा पिपासा को शांत करती तथा रोगियों के लिये उत्तम पथ्याहार है। विशेपतः उष्ण प्रकृति वालों के लिये । ( बु० मु० )
ज़ीरहे अकबर शाही के अनुसार यह भारी है तथा पित्त, कफ, रुधिर विकार, दमा,
कुंदरू
ज्वर और कास – इनको दूर करती है। कंदूरी अपने प्रभाव से बुद्धि को मंद करती है । ( कुँ दरू के विषय में यह प्रवाद चला श्राता है कि यह बुद्धिनाशक होता है ) ।
फल के ऊपर का छिलका उतारकर सेवन करने से यह पेट कम फुलाती है । यह भूख बढ़ाती है; रुधिर उत्पन्न करती है; स्तनों में दूध बढ़ाती है; श्रर्श और श्रामाशयिकातिसार को लाभकारी है । ( ख़० अ० )
वैद्यों के कथनानुसार कंदूरी के फल गुरुपाकी, शीतल, मधुर, और व्रण विदारण होते हैं । ये मल ( विष्ठा ) को शुष्क करते उदर में वायु की वृद्धि करते और स्तनों में दूध बढ़ाते हैं तथा अरुचि, वित्त, रुधिर विकार, दम, सूजन, गरमी और खाँसी -- इनको मिटाते हैं ।
इसके फूल खुजली, पित्त और कामला को दूर करते हैं ।
इसके पत्तों का साग ठंडा, मीठा, लघुपाकी, मलस्तंभक, कसेला, कडुवा, पाक में चरपरा ( कटुपाकी ) श्रौर वातवर्द्धक होता है । यह कफपित्तनाशक है ।
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इसकी जड़ शीतल और वीर्यवर्द्धक होती है । यह प्रमेह ( जरियान ), हाथों की गर्मी, शिरः शूल और वमन का नाश करती है । बहुमूत्र रोग में प्रयुक्र रसायनौषधों को इसकी जड़ के खालिस रस में भिगोते हैं । फिर उसी के रस में वटिकायें इसमें से एक वटी की जड़ का रस एक
प्रस्तुत करके प्रातः काल खिलाकर ऊपर से इसी तोला पिला देते हैं।
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इसकी जड़ काटने पर उसमें से एक प्रकार का पदार रस निकलता है जो सूखने पर कुछ लाल गोंद की तरह जम जाता है। यह बहुत काबिज़ होता है। किंतु फल की भाँति कहा नहीं होता ।
इसकी जड़ की छाल का चूर्ण दो-माशे फँकाने से अच्छी तरह दस्त लगते हैं ।
इसके पत्तों को घी के साथ पीसकर जख़्मों पर लेप करते हैं ।