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कङ्कालय
ककुष्ठ, कङकुष्ठक चरक के मत से ठठरी इन छ: अंशों में विभक्त कङ्काबीज-संज्ञा पु० [सं० श्री.] गोशीर्ष नामक है-चार शाखा, पञ्चम मच्याङ्ग और षष्ठ मस्तक । | चन्दन का बीज । योगरत्न० उ० ख० केशर ऊर्ध्व शाखाद्वय को बाहु और अधःशाखा द्वय को पाके । सथि कहते हैं।
कङ्किरात-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] पीलेफूल की कट युरोपीय शरीर तत्वविदों ने भी कङ्काल को सरैया । कुरुटक । हला० । मुख्यतः तीन अंगों में विभक किया है-(१)| कङकु-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कँगनी । काँक । कंगुउत्तमाग वा मस्तक ( Head ), (२)मध्यान तृण । द्विरूपकोषः । वा स्कंध ( Trunk) और (३) शाखा | ककुका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कँगनी । काँक । ( Extremities)।
कङ्कुटी-संज्ञा स्त्री० [सं०स्त्री.] एक प्रकार का जंग___ महर्षि सुश्रुत के मत से अस्थि पाँच प्रकार की |
ली हुलहुल । होती है कपाल, रुचक, तरुण, वलय और नलकास्थि । जानु, नितम्ब, अंश, गण्ड, तालु, शङ्ख,
ककुष्ठ, कष्ठक-संज्ञा पुं॰ [सं०क्की०] एक प्रकार
की पहाड़ी मिट्टी जो भावप्रकाश के अनुसार हिमाएवं मस्तक का अस्थिखंड 'कपाल' कहलाता है।
लय के शिखर पर उत्पन्न होती है। किसी किसी दन्त के अस्थिखंड का नाम 'रुचक' है। नासिका
के मत से (२० सा० सं०) यह हिमालय के कर्ण, ग्रीवा तथा चतुकोष की अस्थि को 'तरुण'
पाद शिखर में उत्पन्न होनेवाला हरताल जैसा कहते हैं । हस्त, पाद, पार्श्व, पृष्ठ, उदर और वक्षः
एक पत्थर है। किसी ने लिखा है कि यह तत्काल स्थल की अस्थि 'वलय' है। शेष अन्य सकल
के उत्पन्न हुने हाथी के बच्चे की ताजी लीद है जो अस्थिसमूह नलकसंज्ञक अस्थि कहलाती है।
श्याम और पीली प्रभावाली और रेचन होती है । यथा
यथा"कपाल रुचक तरुण वलय नलक संज्ञानि ।
'केचिद्वदन्ति कंकुष्ठं सद्यो जातस्य दन्तिनः । तेषां जानु नितम्बांश गण्ड तालुशङ्ख शिरःसु
वर्चश्च श्यावपीताभ रेचनं परिकथ्यते ॥ कति कपालानि । देशकास्तुरुचकानि ।घ्राण कर्णग्रीवा
चित्तेजिवाहानां नाल कंकुष्ठसंज्ञितम् । वन्ति क्षिकोषेषु तरुणानि । पाणिपाद पार्श्व पृष्ठो |
श्वेतपीताभ तदतीव विरेचनम् ॥” दरोरःसु वलयानि । शेषाणि नलकसंज्ञानि ।”
__ खज़ाइनुल् अदविया नामक यूनानी चिकित्सा (सुश्रुत)
विषयक बृहन्निघण्टु-ग्रंथ में लिखा है कि यह एक महर्षि सुश्रुत के लेखानुसार वेदज्ञ अस्थिकी |
भारतीय वृक्ष है जिसमें इक्षुवत् ग्रन्थियाँ होती हैं। संख्या ३०६ मानते हैं। किंतु शल्यतन्त्र के मत में
इसका फूल स्वर्णाभ और पीतवर्ण का होता है । ३०२ ही अस्थियाँ होती हैं । चरक ने अस्थियों
इसकी शाखाओं और पत्तियों से दूध निकलता है की संख्या ३६० लिखी है। पूर्वकालीन यूनानी
जो स्वाद में तिक्क होता है। पत्तियाँ अर्धा गुली के शारीरतत्वविदों यथा जालीनूस तथा शेखुर्रईस के
बराबर होती हैं। इसके मुहीताज़म नामक मत से इनकी संख्या २४८ है। पर अर्वाचीन शारीरज्ञों अर्थात् युरोपीय चिकित्सकों के मत से
पारस्य निघण्टुगत वर्णन के अनुसार जो तजकि
रतुहिंद नामक ग्रन्थ की प्रतिलिपि मात्र है, नरकङ्काल में सब मिलाकर २२३ (२४६)
यह अनुमानतः कुठ (कुस्त) का अन्यतम भेद अस्थियां पाई जाती हैं। सारांश यह कि कङ्काल
प्रतीत होता है। उसके संकलयिता के कथनानुसार गत अस्थियों के संबंध में विभिन्न प्राचार्यों में
इसकी कतिपय संस्कृत संज्ञाओं से ऐसा प्रतीत काफी मतभेद पाया जाता है।
होता है कि यह मेढ़ासींगी है। (ख० अ०.५ खं० कङ्कालय-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] शरीर । देह ।
पृष्ठ ४६१-२)। जिस्म ।
तात्पर्य यह कि कंकुष्ठ के विषय में इसी १६ फा.