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होती । इसी कारण, बहुसंख्यक रोगियों पर इसका विवेकपूर्ण उपयोग किया गया है, जिसका कभीकभी विपरीत फल भी हुआ है । हमें उन रोगियों का ज्ञान कराया गया है जो कई मास पर्यन्त दिन में दो बार श्रद्धग्रेन की मात्रा में इस क्षारोद के लेने के अभ्यास रहे हैं । कलकत्ता के ( School of Tropical medicine) हमारे श्वास- क्लिनिक ( Asthma clinic ) मैं इसके उपद्रवयुक लक्षण को चिकित्सा में उक्त क्षारोपयोगजात हमारा अनुभव सर्वांश में संतोषदायक नहीं है । नि.संदेह यह वेगों को नियन्त्रित करता और चौथाई घंटे से आध घंटे में लक्षणों का उपशमन करता है । पर इससे अभय पार्श्वविकार उत्पन्न होना संभव है । किसी-किसी रोगी के हृत्प्रदेश में इससे १० से २० मिनिट तक उग्र वेदना होती हुई भी देखी गई है। उक्त औषध के सेवन करनेवाले बहुसंख्यक रोगियों के हृदावरण में पीड़ानुभव होना इसका एक साधारण उपसर्ग है, जिसका कारण कोष्ठीय गत्युत्पादक नाड़ी-प्रांतों की उत्तेजना द्वारा उत्पादित तनाव-वृद्धि ( Hyper-tension) है। इससे किसी-किसी रोगी का दिल धड़कने लगता है, त्वचा भभक उठती है और प्रांतस्थ नाड़ियाँ शिथिल हो जाती हैं और उनमें झुनझुनाहट एवं शून्यता प्रतीत होती है और हृत्स्फुरण ( Tachycardia ) तथा बेहोशी के दौरे तक हो सकते हैं ।
इसके fear पिंगल नाड़ी-मंडल पर होनेवाली क्षारोद की उद्दीपनीया क्रिया, हठीली मलवद्धता जो किसी निर्दिष्ट प्रकार के श्वास रोग की वृद्धि करती है, उत्पन्न करने के लिये दायी है । इससे प्राय: भूख जाती रहती है और साथ ही साधारणतः पाचन विकार हो जाता है। उक्त श्रौषध काफी लंबे समय तक हमारे उपयोग में नहीं रही है, जिससे कि इसके समग्र विपरीत एवं विषाल प्रभावों का ज्ञान हो जाता; परन्तु उनको उपस्थिति निश्चित है । इसलिये इसके उपयोग में विशेषकर इस प्रकार के उपद्रव सहित लक्षण ( Symptom complex ) को दीर्घकालीन चिकित्सा में सावधान रहने को शिफारिस को जाती है। इसके द्वारा उपलब्ध रोगोपराम प्रायः अल्पकालानुबंधो
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होता है, जिससे उक्त औषध के बार-बार सेवन का प्रलोभन मिलता है । अस्तु, बिना कारण की खोज किए वेग के नियंत्रण के लिए इसका नियमित सेवन सख़्त वर्जित होना चाहिये ।
हमने प्रथम ही बतलाया है कि स्युडो- एफीड्रीन की दबाव डालनेवाली क्रिया एकीड्रीन की अपेक्षा बहुत ही निर्बल है । परन्तु, उसकी श्वासनलिकाविस्तारक क्रिया सर्वथा वैसी ही स्पष्ट प्रतीत होती है । फुस्फुसाया धमनो की शाखाओं का श्राकुचन श्लैष्मिक कला के फुलाव ( Turgescence) का उपमन करता है और साथ इसके वायुप्रणालियों का व्यक्त विस्तार वेगोपशमन में सहायक होता है । हम लोगों ने उक्त अवस्था के परिहारार्थ स्युडो- एफीड्रोन का उपयोग किया और इससे आशानुरूप फल प्राप्त हुआ । उक्त क्षारोद को 21⁄2 ग्रेन को मात्रा में मुख द्वारा प्रयोजित करने से १५ मिनिट से आधे घंटे के भीतर वक्ष के चतुर्दिक जो जकड़नसी प्रतीत होती है, वह उपशमित हो जाती है और रोगी का श्वास-प्रश्वास स्वस्थावस्था पर श्र जाता है। दौरे के ज्ञान की पूर्व सूचना मिलते ही वैसी ही एक मात्रा सेवन करने से साधारणतः वेग रुक जाता है । वस्तुतः इसका प्रभाव उतना ही शीघ्र होता है, जितना एकीड्रोन का । यद्यपि हमने काफी लम्बे पैमाने पर तथा काफी लम्बे समय तक इसका व्यवहार नहीं किया है। तथापि जहाँ-जहाँ इसका उपयोग किया गया, वहाँ फल श्राशाजनक ही हुआ है और इसके द्वारा उत्पन्न पार्श्व प्रभाव उतने अप्रिय नहीं रहे हैं। श्वास रोग एवं उन अन्य दशाओं के प्रतिकारार्थ, जिनमें एफीड्रीन का व्यवहार होरहा है, यदि इस क्षारोद का प्रयोग बढ़ाया जाय, तो न केवल इससे चिकित्सा में होनेवाला व्यय घट जाय; श्रपितु पूर्वोक्त श्रौषधजन्य प्रिय पार्श्व विकारों से भी निजात पाना संभव हो जाय ।
भारतीय एफीड्रा से तैयार की हुई सुराघटित रसक्रिया ( Alcoholic Extract ) वा आसव ( Tincture ) - यह प्रायः एफीड्रा जिरार्डिएना तथा एफीड़ा इंटरमीडिया नामक पौधे से प्रस्तुत किया जाता है। प्रथम उक्त पौधे की शुष्क टहनियों को ६० प्रतिशत सुरासार के साथ एक्झाष्ट