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करेनर
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करेमू
करेनर, करेवर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१)
चूहा । मूस । मूषिक । (२)शिलारस ।सिह्नक ।
तुरुष्क । वै० निघ० । रा०नि० व० १२ । करेन्दुक-संज्ञा पु• [सं० पु.] भूम्तृण । खवी ।
घटियारी । रा० । गंधतृण । भूतृण । । करपाक, करपात-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] कृष्ण निंब ।
मीठी नीम | सुरभि निंब । बरसंग | काली नीम । करेपाकचझाड़-मरा०] कड़ी नीम । सुरभि निंब । करेम-संज्ञा पु० दे. "करमू"। करेमू-संज्ञा पुं॰ [सं० कलम्बुः ] एक घास जो जल
में वा जलासन्न भूमि में होती है। जिन झीलों और तालाबों में बारह महीने पानी रहता है. उनमें यह वर्ष भर बनी रहती है। यह पानी के ऊपर दूर तक फैलती है । इसके डंठल पतले, गोल, बाहर से कलौंछ लिये लाल और पोले होते हैं, जिनकी गाँठों पर से दो लम्बी लम्बी पत्तियाँ निकलती हैं। पत्तियाँ जड़ के पास से दोनों ओर थोड़ी थोड़ी
झुकी हुई होती हैं। जड़ पानी की तह में होती । है। यह मीठो होती है और तरकारी के काम • पाती है। फूल बड़ा घंटी के आकार का श्यामला लिये रक वर्ण का होता है।
पय्यो०-कलम्बः, कलम्बकः (अम०), कलम्बी, कलम्बूः, कलम्बुः, कलम्बिका (श० र०) कलम्बुका (भैष०) शाकनाड़िका, नाड़ीशाक, शतपर्वा, शतपर्विका, (भा०), कड़म्बी, -सं० । करेंमू , करमुश्रा, करवु, कलंबी, -हिं० । कलमी शाक, कलमा शाक, -बं० । तोमेबच्चलिचेट्ट, -ते। कलम्बी शाक -मरा०। कान्वालव्युलस रिस, Convol vulus (Ipomoea) Repens,are gifhar qafar Ipomoea aquatica, Forsk. -ले। गरम शाक -पं० । नालि-चि-भाजी-बम्ब०, मरा। सरकारेई बल्ली। -मद।
त्रिवृत वर्ग (N. O. Convolvulacee.)
उत्पत्ति-स्थान-समग्र भारतवर्ष में विशेषतः बंगाल, मदरास, लंका इत्यादि।
औषधार्थ व्यवहार-पत्र, डंडी और कंद | (पंचांग)।
गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारनडीकशाकं द्विविधं तिक्तं मधुरमेव च। रक्तपित्तहरं तिक्तं कृमि कुष्ठ विनाशनम् ।। मधुरं पिच्छलं शीतं विष्टम्भि कफवातकृत् । तच्छुए पत्रं ज्वरदोष नाशनं विशेषतः पित्तकफ ज्वरापहम । जलं च तस्यापि च पित्तहारक सुरोचनं व्यञ्जनयोगकारकम् ।। (रा० नि०)
नाड़ी शाक दो प्रकार का होता है-कडा और मधुर। इनमें कई आ करेमू मधुर, पिच्छल, शीतल, विष्टंभकारक और कफ वात जनक है। तथा यह रक्तपित्त, कृमि एवं कुष्ठ को नाश करता है । नाड़ी के सूखे पत्ते-ज्वर दोषनाशक हैं। विशेषतया यह पित्त, कफ और ज्वर नाशक हैं। इसका रस भी पित्त को हरण करनेवाला, रुचि कारक और व्यञ्जन योग कारक है। : तच्छुष्कं जलदोषघ्नं पित्तश्लेप्मामवातनुन् ।
माड़ी के सूखे पत्ते-जलदोषनाशक, पित्त कफ और आमवात विनाशक हैं। कलंबी स्तन्यदा प्रोक्ता मधुरा शुक्रकारिणी।
(भा०) करमू-स्तन्यवर्धक, मधुर और शुक्रजनक है।
राजबल्लभ के अनुसार यह स्तन्यवद्धक, शुक्रजनक, कफकारक मधुर, कसेला और भारी है।
(राज० ३ पृ.) यह सारक, स्तनों में दूध उत्पन्न करता और अफीम की विषक्रिया को नष्ट करता है। प्रात्मघात के लिये यदि किसी ने अधिक मात्रा में अफीम खा लिया हो तो उसे कल्मीशाक का रस प्राधी छटाँक से एक छटाँक की मात्रा में देने से अफीम जन्य विष दोष नष्ट हो जाता है और उसके प्राण नाश की आशंका दूर हो जाती है । (व० द० २ भ० परि० पृ० ६६७-८)
यह साधारणतया शाक के काम आता है। (फा० इ०२०। ई. मे० मे०) वामक, विरेचक और अहिफेन एवं मल्ल विष का अगद है।