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गुच्छकरज-गुच्छकरञ्जः, स्निग्धदलः, गुच्छ "पुष्पकः, नन्दी, गुच्छी, मातृनन्दी, सानन्दः, दन्त धावनः, वसवः (रा०नि०)-सं०।।
उदकीर्य, करंजी ( अरारी )-उदकीयः, षड्मन्थः, हस्तिचारिणी, मदहस्तिनिका, रोही, हरितरोहणकः, प्रियः (ध०नि०), उदकोर्यः, षड्मन्था, हस्तिवारुणी, मर्कटो, वायसी, चापि, करजी, करभलिका (भा०)-सं० । अरारी, करंजी, करंजिया-हिं० । घोर करंज-मरा०।
अङ्गारवल्लिका वा महाकरंज–अङ्गारवल्लिका ( वल्ली ), अम्बष्ठा; काकनी, काकभाण्डिका, वायव्या, काल्मिकाभेद, वाक्यवल्ली (ध० नि०), महाकरंजः, षड्ग्रन्थः, हस्तिचारिणी, उदकीयः, विषघ्नी, काकघ्नी, मदहस्तिनी, अङ्गारवल्ली, शाङेष्टा, मधुसत्ता, वमायिनी (?), हस्तरोहणकः, हस्तिकरणकः, सुमनाः, काकभाण्डो, मदमत्तः (रा. नि०)-सं० । बड़ाकरंज, हिरियहलुगितु
... करंज के अन्य भाषा के पर्या-बड़ा कंजा, 'डिठोहरी, करंज, किरमाल, सुखचैन (सुखचिन् ), कोरंग, कीड़ामार, करंझ,-हिं०, द० । करंज, करंजगाछ-बं० । पॉन्गैमिया ग्लैबा Pan.
gamia glabra, Vent. necaar gifer 'Galedupa Indica-ले। इंडियन बीच Indian beech-० । पुङ्गम्-मरम्-ता० । कानुग-चेह, कग्गेर, क्रानुग, कंज-ते०। उङ मरम्, पुल्डम्-मल० । होंगे-गिडा, होंगे-मर, नापसोय मरनु, वारुबहिलि गिलु-कना० । करंजाच-वृक्ष, चापड़ा करंज, घाणेराकरंज, वाबट्टा, करंज-मरा० । कोड़ामार-बम्ब०, मरा० । करंज, चरेलकणस-गु० | मगुल्-करंद-सिंगा० । सिमिजु तिमिज़. खयेन् पिरिंजु-बर० । करिन्दि रूकू-कों. सुखचैन-पं०।
नक्तमाल की परिचय-ज्ञापिका संज्ञाएँ• "पूतिपर्णः" । "स्निग्धपत्र" "गुच्छपुष्पः" ।
शिम्बी वर्ग (N. O. Leguminosoe.).
उत्पत्ति-स्थान-यह हिंदुस्तान का एक सामान्य व्यापक वृक्ष है जो प्रधानतः समुद्र के
. किनारों के समीपवर्ती प्रदेशों में उत्पन होता है ।
तथा मध्य एवं पूर्वीय हिमालय से लेकर लंका पर्यंत पाया जाता है। कोंकण में यह सामान्य रूप से मिलता है।
रासायनिक संघटन-इसके बीजों में २७ से ३६.४ प्रतिशत तक एक तिक वसामय तैल (Ponga wol or Hongay oil ) होता है । रंग में यह तेल भूरा और विशिष्ट गंधि होता है। क्षार के व्यवहार से इसका उन रंग बहुतांश में दूर किया जा सकता है। उसी भाँति कम किये हुये चाप में अतिशय उत्तप्त भाफ (Steam ) के व्यवहार से इसकी गंध भी उड़ाई जा सकती है । तैल-स्थित वसाम्ल में २.५६०/ असाबुनी (Unsaponifiable) पदार्थ के सहित मायरिष्टिक (Myristic ०.२३%, पामिटिक (Palmitic) ६.०६%, ष्टियरिक ( Stearic ) २.१६%, प्रारकिडिक ( Archidic ) ४.३०%, लिग्नोसेरिक (Lignoceric) ३.२२%, डायहाइड्रो. क्षिष्टियरिक ( Dihydroxystearic ) ४.४६%, लिनोलेनिक ( Linolenic ) ०.४६%, लिनोलिक ( Linolie) ६.७२%, और अोलीइक एसिड ( Oleic acid ) ६१.३०%-ये पदार्थ होते हैं । - कलकत्ता ( School of Tropical Medicine ) के रसायन विभाग में इसके संबन्ध में जो अन्वेषण-कार्य हुये हैं, उनसे यह प्रगट होता है कि स्थिर तैल के सिवा बीजों में एक प्रकार के अस्थिर तेल के कुछ चित भी होते हैं। लगभग २५० ग्राम बीज-चूर्ण को वाष्पमें परि. स्रावित करने पर केवल अंशमात्र अस्थिर तैल पाया गया। तो भी अभी तक उसके लक्षण निश्चित रूप से निर्धारित नहीं हो पाये। पार० एन० चोपरा, इंडिजीनस ड्रग्स ऑफ इंडिया पृ. ३६६-७।
वृक्षत्वक् में ईथर, सुरासार एवं जल-विलेय एक तिक क्षारोद और ईथरविलेय हरापन लिये भूरे रंग का एक एसिड रेजिन भी होता है। इसके सिवा उसमें शर्करा, और लवाव (Muc ilage)