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१८८२
ककोडा
नलः । तेन च मृण्मयमुत्तानमपूपपचनपात्रंलक्ष्यते"
वा० टी० हेमा० । ककेई-पं०] काखस। ककड़ा-संज्ञा पुं० [सं० कर्कटक, प्रा. ककटक ] एक
लता जिसके फल साँप के आकार के होते हैं
और तरकारी के काम में आते हैं। चिचिंड़ा। चिचड़ा । कर्कटक। ककेरुक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. ] एक प्रकार का
पुरीषज कृमि । यह पाकस्थली में उत्पन्न
होता है। ककैडाका-[ राजपु० ] खेखसा । ककोड़ा। ककैया-संज्ञा स्त्री॰ [?] लखावरी इंट । लखौरी। ककोडा-संज्ञा पु० [सं० कर्कोटकः, पा० कक्कोड़क]
एक वृक्षारोही लता का फल जिसकी पत्ती बंदाल की पत्ती की तरह पंचकोनी होती है। यह फलपाकांत बहुवर्षीय बेल है। यह गर्मी में पुरानी जड़ से ही निकल कर बढ़ती है और बरसात में फूलती-फलती है। फूल पीले रंग का होता है। फल अंडाकार परवल के श्राकार का होता है और उसके ऊपरी भाग में बंदाल के फल की तरह हरे कोमल काँटे होते हैं । बँदालमें ये काँटे अपेक्षाकृत अधिक मोटे, लम्बे, कड़े और घनावृत्त होते हैं। कच्चा ककोड़ा हरा होता है, किंतु पककर यह पिलाई लिए रक्तवर्ण अर्थात् नारंगी के रंग का होजाता है। इसके भीतर बीज भरे होते हैं। बीज परवल के बीज की तरह पकने पर कलौंछलिए होते हैं । स्वाद भेद से यह दो प्रकार का । होता है । मीठा ककोड़ा और कड़वा ककोड़ा । मीठे ककोड़े की तरकारी अत्यन्त सुस्वादु होती है। कडा तरकारी के काम नहीं आता है। इसका मूल कन्द ( Tuber) होता है। इसका वह भेद जिसमें फल नहीं लगते, फल के स्थान में खाली एक कोष होता है, "बॉम ककोड़ा" कह लाता है। बाँझ-ककोड़े की बेल बिलकुल ककोड़े की बेल की तरह होती है। इसकी जड़ के नीचे खोदने से एक कंद निकलता है।
पर्या०-कर्कोटकी; स्वादुफला, मनोज्ञा, कुमारिका; अवन्ध्या, देवी, विषप्रशमनी, (ध० नि०) कर्कोटकी, स्वादुफला, मनोज्ञा, मनस्विनी, बोधना,
बन्ध्य कर्कोटी, देवी, कण्टफला ( रा०नि०) कर्कोटकी, पोतपुष्पा, महाजाली (भा०) पीतपुष्पी, महाजालिनिका, बोधनाजालि, कर्कोटः, कोठकः (च. द०), कर्कोटकं (सु०, प्रज०, अत्रि०) कुमारी, कर्कोटजः, कर्कोटिका, पीतपुष्पा; जाली, (मद०)-सं० ।
खेकसा, खेखसा, ककोड़ा, ककरौल, ककरोल, ककारा, बनकरैला-हिं० । काँकरोल-बं०। कौली, कंटोली-मरा । श्रागाकर-से० । अगारबल्ली -ता०।
मोमोडिंका कोचीनचाइनेन्सिस Momordica Cochin chinensis, Spreng. म्युरिसिया कोचीन चाइनेन्सिस Muricia Cochin chinensis, Loureiro-ले.
संज्ञानिर्णायिनी टिप्पणी___ बङ्गाल में 'जिसे धिकरला' कहते हैं, बनौषधि दर्पणकार के अनुसार वह एक प्रकार की अरण्य कर्कोटकी मात्र है। ककोड़े के उस भेदको, जिसमें फल नहीं लगते हैं, 'बाँझ-ककोड़ा' कहते हैं। फिर अनुभूतचिकित्सासागर-के रचयिता ने कैसे यह लिख मारा, कि इसके सूखे फल को पीसकर सूंघने से छींकें बहुत अाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लिखते समय उन्हें बंदाल वा देव. दाली की सुधि आगई होगी। तिबमुस्तफवी के अनुसार इसके फल को बाकर वा बाकल कहते हैं। यह भी प्रमादपूर्ण ही है। मालूम होता है कि भंग के नशे में ये व्यवस्थापन दिये गए हैं। इनसे भी हास्यास्पद बात ख़ज़ाइनुल अदविया के रचयिता को है । आप उक्त लेखकों की सत्यालोचना करने तो बैठे, पर अपनी बारी पर अाप भी उन्हीं को तरह नशे में होकर लिख गए कि इसके नर और मादा ये दो भेद होते हैं । उक्त वर्णन डिमकोक्न धारकरेले ( M. Dioica, Roxb.) का है, जिसमें फल होते हैं। परन्तु वह बाँझ-ककोड़े से सर्वथा भिन्न पौधा है।
कुष्माण्ड वर्ग (N. 0. Cucurbitaceæ.) उत्पत्तिस्थान-बंगाल से टेनासरिम तक,