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( चावल ) के भात के साथ खाने से चिरजात नाड़ी - नासूर से मुक्ति लाभ होता है । यथा"माहिषदधि कोद्रवान्नमिश्रं हरति चिर विरूदन । भुक्कं कङ्गुनिक मूलचूर्णमतिदारुणां नाड़ीम् ॥"
( नाड़ी व्रण चि० )
(२) रक्तपित्त में क — कँगनी का चावल रक्तपित्त रोगी के लिये उत्तम है । यथा“श्यामाकश्च प्रियङ्गुश्च भोजनं रक्तपित्तनाम्” । वङ्गसेन - - श्रन्नद्रवाख्य शूल में कँगनीअन्नद्रवनामक शूलरोगमें रोगीको कँगनी के चावल
दूध से बनी खीर में शर्करामिला कर पिलाना हितकारी होता है । यथाप्रियङ्गुतण्डुलैः सिद्धं पायसं शार्करं हितम्” । ( शूल चि० ) यूनानी मतानुसार गुण-दोष -
प्रकृति - प्रथम कक्षा में शीतल और द्वितीय कक्षा में रूक्ष । किसी-किसी के मत से द्वितीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष |
हानिकर्ता — अवरोधोत्पादक है । वस्ति तथा वृक्क में पथरी पैदा करती है। प्लीहा को हानि कारक है और देर में श्रामाशय से नीचे उतरती है । वैद्यों के अनुसार इसका सत्तू फेफड़े को खराब करता है ।
दर्पन - दूध, शर्करा, घी और मधु । इसके सत्तू का दर्पदलन बबूल की गोंद और मस्तगी है। ter के लिये मस्तगी दर्पन है । प्रतिनिधि- ---चावल ( किंतु यह ठीक नहीं ) गुण, कर्म, प्रयोग - इससे धातु पोषणांश कम प्राप्त होता ( क़लीलुल् ग़िज़ा ) है । यह उदरावरोधक ( हाबिस शिकम) और मलबद्धता कारक है । यह रूक्षता उत्पन्न करती है, किंतु उतना नहीं जितना बाजरा | यह पेशाब लाती है, पित्त के दस्तों को बंद करती है। घी के साथ सीने को मृदु करती है। दूध और शर्करा के साथ भक्षण करने से वीर्य उत्पन्न करती है । वेदनास्थल पर इसे गर्म कर सेंकने से लाभ होता है । यह शोथादि को विलीन करने वाली ( मुहलिल )
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कंगशिश्रोर
भी है । इसका चावल पकाकर दूध और घी के साथ खाने से शुद्ध आहार की प्राप्ति होती है । वैद्यों के मत से भी यह मलावरोधकारक है तथा रूक्षता उत्पन्न करती और मूत्रोत्सर्ग करती है । इसमें पोषणांश कम है । इसे यदि दूध में पकायें तो इसकी रूक्षता कम हो जाय और पोषणांश अधिक होजाय । किसी-किसी के मत से पकी हुई कँगनी 'वायु को विलीन करती, क्षुधा की वृद्धि करती, धातु को शक्ति प्रदान करती और स्वर को साफ़ करती है । इसका सत्तू पित्तातीसार बंद करता है । इसका खाना जलंधर और शोथ श्रर्थात् 1 सूउल्क़िन्यः (Anasarpca ) के लिये गुण कारी है । इसलिये इसे प्रायः ऐसे रोगी को देते हैं । इसके अकेले भक्षण करने से कभी-कभी दस्त श्राने लगते हैं। अनुभूत- चिकित्सा सागर में ऐसा ही लिखा है । इसको कथित कर पिलाने से मूत्र का उत्सर्ग होता है । इसके लेप करने से श्रमवात जति पीड़ा नष्ट होती है। इसकी भूसी कान में डालने से कर्णस्राव को लाभ होता है । (ख० श्र०)
इंडियन मेटीरिया मेडिका में भी प्रायः इसके उपर्युक्त गुणों का ही उल्लेख किया गया है । इतना अधिक लिखा है कि यह प्रसवकालीन वेदना के उपशमन की सुप्रसिद्ध घरेलू दवा है ।
यह मूत्रल संकोचक और श्रमवात में उपकारी है । चोपरा
कंगर - [ ? ] ( १ ) हर्शन । श्रचक। उल्लह । दे० “हर्शफ़” । ( २ ) उल्ल ू । उलूक । कंगर आबी - कुर्रतुल्ऐन । जर्जीरुभा । कगरजद - [ फ़ा० ] हर्श' का गोंद । कंगरतर - [ फ्रा० ] हर्शफ़तर । कंगरी - [ श्रवध ] ककुनी । कँगनी ।
[फ़ा॰] ( १ ) हर्शफ़ । कंकर । (२) हर्शन कागद
कंगरी सफ़ेद - [ फ्रा० ] बाद श्रावर्द । कंकर सफेद | कंगरोड़ - संज्ञा पुं० ( १ ) मेरुदंड । पृष्टवंश ||
(२) एक जलीय पक्षी का नाम ।
कंगलियम् - [ ता० ] साल |
कंगलु -[ पं० ] जनूम | बातु कंगशिश्रोर - [ लेप० ] अयार ।