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जनक फल प्राप्त हुये । ऐसे रोगियों को जिनके हृदय की क्रिया निर्बल थी थोर हृदय डूब रहा था, इस औषध के प्रयोग से व्यक्त कल्याणप्रद प्रभाव प्रगट हुआ | 1⁄2 ड्राम से १ ड्राम तक दिन में २-३ बार उन श्रौषध बहुसंख्यक रोगियों को सेवन करा देने से, यह ज्ञात हुआ कि इससे रक्त-वेग नियत मात्रा में बढ़ गया ( पारा १० से २० मिलि मीटर तक चढ़ गया ) | पर्याप्त शोणित-संचालन के कारण जिन रोगियों के वृक्क की क्रिया अव्यस्थित हो गई थी, उनमें व्यक्र मूत्र प्रत्राव प्रगट हो गया ।
श्वसनक ज्वर ( Pneumonia ), गलग्रह ( Diphtheria ) श्रादि जैसे रोगों को छूत से होनेवाली हृदयको विषाक्त दशाओं में एफीड़ा का टिंकूवर उत्तम हृदयोत्तेजक भी है। लेफटेंट aga (Lt.Col. Vere Hodge, I. M. S. ) ने उक्त अवस्थाओं में 2 ड्राम की मात्रा में इसका टिंक्चर दिन में ३-४ बार प्रयोगित कराया और इससे उत्तम फलप्राप्त हुये । आर० एन० चोपरा एम० एम० ए० डी० (Indigenous drugs of India ).
यह परिवर्त्तक, मूत्रविरेचनीय, श्रामाशय बल प्रद और वल्य है । उम्र श्रमवात में इसका क्वाथ और चूर्ण लाभदायक साबित हुये हैं । परन्तु चिरकारी अवस्था में ये उपयोगी नहीं है। दस-बारह दिन तक उक्त बूटी के सेवन से ही संधियों की सूजन और पीड़ा जाती रहती है और रोगी स्वास्थ्य लाभ करता I "इंडियन मेटीरिया मेडिका" में तो यहाँ तक लिखा है कि उम्र श्रमवातादि में जब सैलिसिलेट श्रॉफ सोडा, ऐण्टिपायरीन और ऐरिफेत्रीन आदि डॉक्टरी श्रोषधे निष्फल प्रमाणित होती है, तब यह बूढ़ी पूर्ण लाभ प्रदान करती है और उक्त
षों की भाँति इससे हृदय निर्बल नहीं होने पाता । प्रत्युत उसके विरुद्व इससे हृदय को किसी भाँति शक्ति ही प्राप्त होती है ।
इसके काथादि के सेवन से यकृत को निर्बलता के कारण होनेवाले अजीर्ण-रोग में स्पष्ट लाभ होता होता है । क्योंकि इसके उपयोग से यकृत की क्रिया नियमित हो जाती है और उचित परिमाण में
एफीड्रा - पैचिक्लेडा
पित्तोत्सर्ग होते लगता है । इसलिये खाना भली भाँति हज़म होने लगता है और सुधाकी कमी एवं मलबद्धतादि यकृन्न बैत्यजन्य उपसर्ग भी जाते रहते हैं ।
जैसा कि ऊपर वर्णित हुआ है, कि इसके उपयोग से यकृत की क्रिया स्वाभाविक हो जाती है और पित्त भी तरलीभूत होकर भली प्रकार उत्सर्गित होने लगता है । इसलिये पित्त यकृत में एकत्रीभूत होकर रक में मिलने की जगह श्राहार पर अपना पूरा प्रभाव करता हुआ मल के साथ निःसरित हो जाता है, जिससे कामला- रोग का नाश होकर यकृत को सूजन कम हो जाती है ।
इसके फल का स्वरस श्वासनलिकागत विकारों
पयोगी है। इसका काय परिवर्तक है और उग्र पेशीय एवं संधिजात श्रमात और फिरंग में प्रयोगित होता है । श्रामाशय बलदायक रूप से यह पाचन को सुधारता औरतों को शक्ति प्रदान करता है ।
नोट - एफीड़ा के शेष वर्णन के लिये दे० "श्रमसानिया" ।
एफीड्रा - अलेटा - [ले०ephedra-alata, Meyers] कुचन, लस्तुक, मंगरवल, निक्कि - कुर्कन । दे० "एफीड्रा पेडंक्युलेरिस” |
एफीड्रा - इंटरमीडिया - [ ० ephedra-interm
edia, schrenk. & Meyer.] दे० " एफोड़ा पेचिक्रेडा" ।
एफीड्रा - एल्टी - [ले० ophedra-alte, Brand.]
दे० " एफीड़ा - पेडंक्युलेरिस" ।
एफीड्रा - जिराडिए ना - [ ले० eph dra-gerardi
ana, Wall. ] दे०' ' एफीड़ा- वल्गैरिस" | एफीड्रा-डाइस्टैकिया - [ ले० ephedra distac
hya, Linn.] दे० "एफीडा-क्लॉरिस " । एफीड्रा-पेडंक्युलेरिस - [ ले० ephedra pedun
cularis, Boiss.] कुचन, लस्तुक । दे० " एफीड़ा" ।
एफीड्रा- पैचिक्लेडा [शे० ephedra pachyclada, Boiss. ] हूम - ( फ़ा० ) । श्रोमन - ( पश्तु) । गेह्या- (बम्ब०) ।