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पांस
कपास
sans
वनकार्पासिका-सं० । वन कपास, जंगली कपास, नरमावाड़ी-हिं० । वन कापासी, वन ढयाँस, वन कावास, वन कार्पास-बं० । हिबिस्कस ट्रकेटस Hibiscus Truncatus Roxb| हिबिस्कस वाइटि फोलियस Hibiscus Vitifolius, Roxd-o the wild cotton अं० । कार्पासामु, पत्ति अड़वी पत्ति, कोंडापत्तिते । काट्ठा कापसि, राण कापासो, रान कापुसो, रान भेंडी, सरकी-मरा० । कड हत्ति, काड हत्तिकना०, का0 | वन कार्पास-कों० । हिरवा कपासिया-गु० । नांदण वण-राजपु० । रान भेंडी बम्ब० रोंडा-पत्ति-मद०, ते ।
हिबिस्कस लेम्पस Hibiscus Lampas, धेसपासिया लेम्पस Thes pasia Lampas, Dabz
__ कार्पास वर्ग (N. O. Malvacee) उत्पत्ति-स्थान एवं वर्णन-यह देव कपास की जाति की ही एक वनस्पति है जिसका रुप फैलनेवाला या वृक्षों के सहारे ऊपर चढ़नेवाला होता है । कुमायूँ से पूरब और बंगाल तक हिमालय के उष्ण कटिबंध स्थित भागों तथा खानदेश और सिंध प्रांत में एवं पश्चिमी प्रायद्वीप में बन कपास बहुत होती है, पत्ते छोटे-छोटे फूल १॥ इंच लम्बे (फूलों का वर्ण सबका एक समान पीला होता है) ताजी अवस्था में पोत वर्ण के, पर सूखने पर गुलाबी रंग के हो जाते हैं । इसको कपास कुछ पिलाई लिये होती है। बन कपास के बोज कुछ विशेष लम्बे ओर कृष्ण वर्ण के होते हैं।
वनोषधि-दर्पणकार के अनुसार बंगदेश में इसे "बन ढाँडश" कहते हैं। उनके अनुसार इसका वृत एवं फल देखने में ठीक ब्याढ़स (ढेंढस) अर्थात् मिडी के वृतोर फज को तरह मालूम पड़ता है । भेद केवल यह है कि इसका फल भिंडो को अपेक्षा किंचित् क्षुद्रता होता है । बोज देखने में वृक्काकार (G) एवं रून कृष्ण वर्ण का ओर फल गात्र अतिसूक्ष्म रेखाबंधुर होता है। पक्र शुष्क बीज के मर्दन करने से कस्तूरी को सो गंध पाती
है। कलकत्ता के वणिक इसी को लता कस्तूरी - कहकर बिक्रय करते हैं। लेखक ने इसकी निम्न लेटिन संज्ञाएँ दी हैं।
इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह जंगली भिंडी ही है और बन कपास इससे भिन्न कोईऔर ही चीज है। हमने इससे पूर्व जिस पौधे का वर्णन किया है, वस्तुतः उसे ही बनकपास कहना उचित जान पड़ता है।
औषधार्थ व्यवहार-पत्र, फल और मूल __ मात्रा-मूलत्वक् कल्क ३ से ६ आना । पत्र स्वरस-१ से २ तोला।
गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार'भारद्वाजी' हिमा रुच्या व्रण शस्त्र क्षतापहा ।
_ (राजनिघण्टु) वनकपास-भारद्वाजी शीतल, रुचिकारी है तथा यह व्रण, शस्त्र-क्षतादि नाशक है। . भारद्वाजी हिमा रुच्या व्रण शस्त्र क्षतापहा । रक्तरोगं च वातं च नाशयेदिति निश्चितम् ।।
(भा०) अर्थ-भारद्वाजी शोतल, रुचिकारी, व्रण और शस्त्र जन्य क्षत को नष्ट करती तथा रुधिर विकार एवं वादी को दूर करती है।
. प्रयोग चक्रदत्त-स्तन्य वद्धनार्थ अरण्यकार्पासो मूल-बन कपास और ईख की जड़ प्रत्येक सम भाग ले, कॉजी के साथ पीसकर ६ माशे की मात्रा में सेवन करने से प्रसूता नारी के स्तनों में दूध बढ़ता है । यथा"बनकासकोक्षणां मूलं सौवोरकेणवा ।"
'स्त्री रोग-चि.) वङ्गसेन-अपची और गण्डमाला पर अरण्य कार्पासो मूल-बनकपास को जड़ को छाल का बारीक चूर्ण, चावल के आटे के साथ समभाग मिला, पानी से गूध कर, छोटी-छोटी टिकिया बना, तवे पर रोटी के समान सेंककर वा गोघृत में पूडो बनाकर खाने से अपचो नष्ट होती है । यथा"बन कासिजं मूलं तण्डुलैः सह योजितम् । पक्तवाऽऽज्ये पूपिकांखादेदपचीनाशनायच ।"
(गण्डमालादि-चि.)