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________________ कमरघवेल २१५६ कमल गुण धर्म तथा प्रयोग कमरि-[ ] बाँस । मोहीदीन शरीफ-यह धारक, पाचक, कमरिया-संज्ञा पु० [फा० कमर ] बौना हाथी । (Stomachic) और मनोल्लासकारी ( Re. नाटा हाथी । frigerant) है । फल का शर्बत प्यास | संज्ञा स्त्री० दे० "कमरी" । बुझाता एवं ज्वर प्रकोप को शांत करता है तथा कमरी-संज्ञा पुं०, घोड़े का एक रोग । रक्रति संबंधी कतिपय ऐसे सामान्य रोगियों कमरी, कम - मध्य प्र०, कोल.] डिकामाली। को भी जिनकी आँतों, प्रामाशय और अन्तःस्थ | कमरीब-[अ०] करमकल्ला । अर्श ( Internal hemorrhoids)| कमरून-[?] रोबियाँ । झींगा मछली । से रक्तस्राव होता हो, यह बहुत उपकार करता है कमरूनी-एक प्रकार का सर्वोत्तम अगर जिसे कमारी अर्श तथा स्कर्वी नामक रोग में फल स्वयं, कढ़ी भी कहते हैं। के रूप में, एक अत्युपयोगी एवं पथ्य खाद्य-द्रव्य | कमल-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० कमलं ] (१) पानी में है। -मे० मे० मै० पृ. ७६। । होनेवाला एक पौधा जो प्रायः संसार के सभी कमरघवल-[ पश्तो ] पाखानबेद । पाषाणभेद । भागों में पाया जाता है। यह झीलों, तालाबों, कमरजहर:-संज्ञा पुं॰ [फा०] एक प्रकार का पौधा नदियों और गड़हों तक में होता है। बहुप्राचीन, जो ठंढे हिमाच्छादित पर्वतों पर पैदा होता है। दीर्घकाल से असंस्कृत रहने के कारण पंकबहुल इसके पत्ते श्रास के पत्तों की तरह और परस्पर ! एवं गरमी में भी जिसका पानी नहीं सूखता, खूब मिले हुए होते हैं । इसमें शाखाएँ बहुत होती | ऐसे तालाब वा पोखरी में कमल उत्पन्न होता है । हैं जो भूमि से दो बित्ता वा न्यूनाधिक ऊपर उठी | इसका पेड़ बीज से जमता है। कमल की पेड़ी होती हैं। इसके पत्ते तोड़ने से प्रचुर दुग्ध स्राव | पानी में जड़ से पाँच छः अंगुल के ऊपर नहीं होता है । इसकी शाखाओं की पहुँचियों पर फूल श्राती । इसकी पत्तियाँ गोल-गोल बड़ी थाली के और बीज पाते हैं । बीज प्राकृति में माज़रियून आकार की होती हैं और बीच के पतले डंठल में के बीजों के समान और प्राकार में मटर के दाने जुड़ी रहती है । इन पत्तियों को पुरइन कहते हैं । के बराबर होता है । जड़ बहुशाखी होती है । इस इनके नीचे का भाग वा पत्रपृष्ठ जो पानी की पेड़ में रेशम के कीड़ों की तरह कीड़े पैदा हो तरफ रहता है, बहुत नरम और हलके रंग का जाते हैं । जिनपर काले, लाल और सफेद रंग के वा ईषत् रक्तवर्ण का एवं सिराकर्कश होता है, पर बिंदु होते हैं । यह कीड़ा विषैला होता है। ऊपर का भाग अर्थात् पत्रोदर द्विदलवत् हरिद्वर्ण गुण, कर्म, प्रयोग-यह संधिशूल, पक्षाघात एवं मखमल की तरह कोमल बहुत चिकना, फालिज तथा लकवा में गुणकारी है। इसकी जड़ चमकीला और गहरे हरे रंग का होता है। इस पीने से वातज दंतशूल आराम होता है । कृमि- तरफ पानी की बूँदें नहीं ठहरती हैं। कमल चैत भक्षित दंत पर इसे चंदबार लगाने से वह उखड़ वैसाख में फूलने लगता है और सावन भादों तक जाता है। इसके पत्ते पीने से कै-दस्त पाते हैं। फूलता है। बरसात के अंत में बीज पकते हैं। सर्प तथा वृश्चिक-दंश में इसका दूध गोघृत और फल लम्बे डंठल के सिरे पर होता है तथा डंठल मधु के साथ सेवन करने से उपकार होता है। वा नाल में बहुत से महीन-महीन छेद होते हैं। सर्प तथा अन्य कीट-विषों की यह रामबाण औषध इसकी डंडी खुरदरी होती है। डंठल वा नाल तोड़ने से महीन सूत निकलता है जिसे मृणालकमरंग-संज्ञा पुं॰ [सं० कम्मरंग] कमरख । सूत्र कहते हैं। इसे बटकर मंदिरों में जलाने की कमरा-[कना०] अञ्जन । छोटा दुधेरा । बत्तियाँ बनाई जाती हैं। प्राचीन काल में इसके [गु०] शमी । जंबु । (ता०)। कपड़े भी बनते थे। वैद्यक के मतानुसार इस संज्ञा पुं० दे० "कमला" । सूत के कपड़े से ज्वर दूर हो जाता है। कमल कमरा-[१०] एक प्रकार का पक्षी। की कली प्रातःकाल खिलती है । फूलकी कटोरी में
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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