SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करजीरी २१६५ करजीरी एरण्ड तैल या कोई और मृदुसारक औषध देना | चाहिये। मख्ज़न मुफ़रिदात के अनुसार यह निविषेल है। पर बुस्तानुल मुफरिदात के मत से यह प्रायः विष है, अतएव भक्षणीय नहीं है, प्रलेपादि में यह वाह्य प्रयोग में आती है। इससे ही मिलता जुलता विचार मख्जनल अदविया के रचयिता का भी है। वे लिखते हैं कि अत्यंत तीक्ष्ण एवं विषाक्त होने के कारण यह प्रायः आंतरिक रुप से सेवनीय नहीं, क्यों कि इससे हानि की संभावना होती है। अस्तु, इसका वाह्य रूपसे उपयोग करते हैं । चिकित्सगण इसका मानबी चिकित्सा में तो कम उपयोग करते हैं, पर पशुओं वा चतुष्पद जीवों की चिकित्सा में इसका बहुत उपयोग होता है, विशेषतः अश्वचिकित्सा में । ब्याई हुई घोड़ी के मसालों में भी यह दी जाती है। अतः यह पशु चिकित्सकों के काम की दवा है। कहते हैं कि घोड़ों के लिये यह रेवंदचोनी की तरह शीतल है। खाने में यह बहुत कडुई चरपरी और तीव्रगंधी होती है। गुण,कम,प्रयोग–मुख द्वारा प्रयोग करने से यह श्लैष्मिक मवादों को खूब छाँटती है, आमाशय और प्रांत्र गत कृमियों तथा कईं दाने को निकालती है और सर्दी के दर्दो को शांत करती है। इसके लेप से सरदी की सूजन उतर जाती है। (म० अ०) इसकी पत्तियों में भी उपयुक गुण विद्यमान होते हैं। (बु. मु०) यह पाचन और क्षुधाभिजनन है एवं उत्तम वातानुलोमक है । इससे खूब अपान वायु खुलता है। यदि सोहागे को खील के योग से एक माशा से चार माशे तक कालोजीरी का चूर्ण दूध के साथ फाँके, तो बवासीर आराम हो, | यह सिद्ध औषध है। इसका सुरमा आँख को निर्मल करता (जिला) है । (म. मु०) यह प्रायः अश्व चिकित्सा में प्रयोगित होती है। यह उष्ण है तथा शोधन प्रतीत होती है और कफज सूजन प्रभति में उपकारी है। (ता. श०) इसके मर्दन से खाज मिट जाती है। १०॥ माशे कालीजीरी लेकर आधी को भून लें, फिर सबको मिलाकर पीस । कर तीन बराबर भागों में वाँटें। इसमें से एक भाग प्रतिदिन प्रातःकाल फाँक लिया करें और साठो चावलों का भात और दही दोनों समय भोजन करें। इससे बादी और खूनी दोनों प्रकार के बवासीर नष्ट होजाते हैं। छः माशे कालीज़ीरी और एक मुट्ठी नीम की पत्ती रात को मिट्टी के बरतन में भिगोदें। प्रातःकाल उसे मल छान कर पीलें। इससे अनियत कालीन जीर्ण ज्वर मुक्त होता है । इसे सेमल के मूसला के साथ पकाने से इसकी कड़वाहट जाती रहती है और इसकी गरमी भी कम होजाती है। पकते समय बरतन का मुंह खुला रहना चाहिये और खूब पकाना चाहिये । इसके लिये करजीरी से सेमन का मूसरा चतुर्थांश रखना पर्याप्त होता है। किंतु उसे ताजा एवं छोटे पेड़ का ग्रहण करना चाहिये । (ख० अ०) नव्य मत फार्माकोपिया आफ इण्डिया के मत से कृमिघ्न रूप में व्यवहृत करजीरो के चूर्णकी साधा रण मात्रा १॥ ड्राम (लगभग ६ मा०) है। यह एक-एक घंटा के अंतर से बराबर २ मात्रा में दो बार सेवनीय है। इसके सेवनोपरांत रोगी को मृदुरेचक औषध का व्यवहार उचित होता है। इस प्रकार इसके सेवन से प्रायशः मृत कृमि निर्गत होते देखा गया है। __डाक्टर ई० रास (E. Ross)का कथन है कि इसके १ से १५ रत्ती चूर्ण का शीत कषाय कृमि विशेष (Ascarides) के विनाश के लिए अव्यर्थ महौषधि है। डा० गिब्सन-स्वानुभव के बल पर कहते हैं कि १० से १२॥ रत्ती की मात्रा में इसके बीज उत्तम बलकारक और पाचक है। यह मूत्रकारक रूप से भी प्रसिद्ध है। ___ इसके बीजों को कूटकर नीबू के रस में पीसकर तैयार किया हुआ कल्क, ट्रावनकोर में जू और लीख प्रभृति केशकोट ( Pediculi ) नाशार्थ बहुत व्यवहार किया जाता है। ( फार्माकोपिया आफ इण्डिया, पृ० १२६) ऐन्सली के मत से इसके धूमिल वर्ण के अत्यंत कड़वे बीज प्रवल कृमिघ्न हैं, तथा सर्प
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy