________________
कहरुवा
२४०३
दूरवर्ती रक्तस्थापन रूप से भी उक्त लदणों-सक्सिनेट्स का व्यवहार किया गया है
वा
I सक्सिनिक पराक्साइड ( Succinic Peroxide ) जिसे श्राल फोजोन (Alphozone) चालफोजेन ( Alphogen ) भी कहते हैं । एक श्वेत रंग का श्रमूर्त चूर्ण है। यह प्रवल रोगजन्तुघ्न द्रव्य है । इसके ८ ग्रेन= ४ रत्ती का एक पाइंट में बना ताजा वित्तयन प्रायः समस्त रोग कारक जीवाणुओं को वात की बात में नष्ट कर डालता है । -- हि० मे० मे० ।
नोट - एलोपैथी में यह अनधिकृत ( Non official ) द्रव्य है ।
1
( २ ) एक पेड़ जो दक्षिण में पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में बहुतायत से होता है । इसे सफ़ेद डामर या कहरुवा भी कहते हैं। एक बड़ा सदा बहार वृक्ष होता है जिसका गोंद राल वा धूप कहलाता है । पेड़ से पोंछकर राल निकालते ताड़पीन के तेल में यह अच्छी तरह घुल जाता है और वारनिश के काम में आता है। इसकी माला भी बनती है । उत्तरी भारत में स्त्रियाँ इसे तेल में पका कर टिकली चपकाने का गोंद बनाती हैं । अर्क बनाने में भी कहीं कहीं इसका उपयोग होता है। (हिं० श० सा० ) क़हल -संज्ञा पु ं, स्त्री० [अ०] रौच्य | रूक्षता । शुष्कता । रूत होने का भाव । (२) कृश होने का भाव । लाग़री । कार्य । दुवलापन । कहल्-[ अ ० ] आँख के पपोटेके किनारों का पैदायशी स्याह होना ।
कहवा -संज्ञा पुं० [अ०] एक पेड़ का बीज |
पर्थ्या० - म्लेच्छ्रफल, श्रतंद्री - स० | काफी, कहवा, बुन, बून-हिं० । बून, बूँद - द० | कापि, काफि - बं• | क़.हवा, बुन - श्रु०, फ्रा० । ( सीड्स श्रा) काफिया अरेबिका ( Seeds of ) Coffea Arabica, Linn-ले० | काफी Coffee-श्रं० | काफीस्डो' अरबी CafeierArabie-फ्रां०] । श्रर बिश्चर काफी बाम Arabischer Kaffebaum-जर० । कापि को - ता० । कापि वित्तलु - ते० । काप्रिकुरु, बन्नु, कोपि - मल० । बोंद - बीजा, कापि-बीजाकना० । काफि, कप्पि - गु० । कोपि श्रट्ट - सिं० ।
कहवा
काफि सि - बर० । काफी, कफ्फी - मरा० । बुझ्न - कों० | काफ़ी -बम्ब० । बुंद - मरा०, गु० । कफि -
मार० ।
नोट - अन्य देशी भाषाओं में इसकी अँगरेजी संज्ञा " काफी" का ही अपभ्रंश रूप में व्यवहार होता है।
कदम्ब वर्ग
( NO. Rubiaceae.)
1
उत्पत्ति स्थान - अरब देश काफी वृक्ष का जन्म स्थान है । किंतु अब यह अफ्रीका, अबिसीनिया, मित्र, हबस, लंका, ब्रेज़िल, मध्य अमेरिका श्रादि देशों में भी होता है। इसकी खेती भी उन देशों में की जाती है। अब इसकी खेती हिंदुस्तान में कई जगह होती है और इसकी उपज भी खासी होती है । दक्षिण भारत में मैसूर; कुर्ग, मदरास, ट्रावनकोर, कोचीन तथा नीलगिरि पर इसकी खेती होती है । यह श्रासाम, नेपाल और खसिया की पहाड़ी पर भी होता है ।
वर्णन - कहवे का पेड़ सोलह से अठारह फुट तक ऊँचा होता है । परंतु इसे आठ नौ फुट से अधिक बढ़ने नहीं देते और इसकी फुनगी कुतर लेते हैं क्योंकि इससे अधिक बढ़ने पर फल तोड़ने में कठिनाई होती है । इसकी पत्तियाँ दो दो श्रामने 1 सामने होती हैं । वृक्ष का तना सीधा होता है जिस पर हलके भूरे रंग की छाल होती है । फ़रवरी मार्च में पत्तियों की जड़ों में गुच्छे के गुच्छे सफेद लंबे फूल लगते हैं जिनमें पाँच पंखुड़ियाँ होती हैं । फूल की गंध होती है। फूलों के झड़ जाने पर मकोय के बराबर फल गुच्छों में लगते हैं । फल पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं। गूदे के भीतर पतली झिल्ली में लिपटे हुये बीज होते हैं। पकने पर फलं हिलाकर ये गिरा लिये जाते हैं । फिर उन्हें मलकर बीज अलग किये जाते हैं।
अंडाकार बड़े और रंग में पीताभ वा हरिद्राभ होते हैं, जिनमें एक प्रकार मृदु गंध होता है, जिस पर लंबाई के रुख़ गहरी धारियाँ होती हैं । स्वाद में यह मधुर, कषाय और तिल होते हैं। इन बीजों को भूनते हैं और उनके छिलके अलग करते है इन्हीं बोजों को पीसकर गर्म पानी में दूध दिया मिलाकर पीते हैं ।
1